नई दिल्ली। भारत के प्रतिष्ठित मेडिकल कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में अनुसूचित जाति (SC) समुदाय से आने वाले पीजी (पोस्टग्रेजुएट) मेडिकल छात्रों के साथ हो रहे भेदभाव, अमानवीय कार्य परिस्थितियों और आत्महत्याओं के मामलों को लेकर राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (NCSC) ने गंभीर रुख अपनाया है। आयोग ने अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS), नई दिल्ली और केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय को को नोटिस जारी कर 15 दिनों में जवाब मांगा है।
राजस्थान के डॉ. लक्ष्य मित्तल, लैप्रोस्कोपिक, जनरल एवं लेजर सर्जन और यूनाइटेड डॉक्टर्स फ्रंट (UDF) के राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा की गई विस्तृत शिकायत पर यह कार्रवाई आयोग ने की है। डॉ. मित्तल ने अनुसूचित जाति वर्ग के पीजी मेडिकल छात्रों के अधिकारों की सुरक्षा, आत्महत्याओं की रोकथाम और कार्य परिस्थितियों के नियमन को लेकर आयोग से तत्काल हस्तक्षेप की मांग की थी।
शिकायत में क्या?
डॉ. मित्तल ने अपनी याचिका (दिनांक 08 जुलाई 2025) में अनुसूचित जाति समुदाय के छात्रों के सामने आने वाली निम्न समस्याओं को आयोग के समक्ष पत्र के माध्यम से रखा है।
अमानवीय ड्यूटी आवर्स – मेडिकल कॉलेजों में पीजी छात्रों से 24 से 36 घंटे तक लगातार काम कराया जाता है। कई मामलों में ड्यूटी 72 घंटे तक बढ़ा दी जाती है।
मूलभूत अधिकारों का हनन – छात्रों को संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और गरिमा का अधिकार) एवं अनुच्छेद 42 (मानवीय कार्य परिस्थितियों का अधिकार) के विपरीत स्थितियों में काम करने पर मजबूर किया जाता है।
जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न – अनुसूचित जाति के छात्रों को अक्सर सहपाठियों, रूममेट्स और फैकल्टी द्वारा जातिगत टिप्पणियों और भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
आत्महत्याओं और ड्रॉपआउट्स में बढ़ोतरी – लंबे ड्यूटी आवर्स और भेदभाव की वजह से हर साल दर्जनों छात्र आत्महत्या कर लेते हैं या कोर्स छोड़ देते हैं।
आयोग ने कहा, '15 दिनों में दें जवाब'
राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने अपने नोटिस (फाइल नं. SSW-II/BE/HFW/2025/301685) में एम्स निदेशक और मंत्रालय के सचिव से 15 दिनों के भीतर कार्रवाई रिपोर्ट मांगी है। आयोग ने स्पष्ट किया है कि यदि निर्धारित समय में जवाब नहीं दिया गया, तो इसे आयोग की शक्तियों का उल्लंघन माना जाएगा और आयोग सिविल कोर्ट जैसी कार्रवाई कर सकता है।
एनएमसी की टास्क फोर्स की रिपोर्ट भी गंभीर
डॉ. मित्तल ने अपनी शिकायत में नेशनल मेडिकल कमीशन (NMC) द्वारा अगस्त 2024 में गठित टास्क फोर्स की रिपोर्ट का भी हवाला दिया है। यह टास्क फोर्स, डॉ. सुरेश बडा मठ (निम्हांस) की अध्यक्षता में बनी थी, जिसने पीजी छात्रों की मानसिक स्थिति और आत्महत्याओं का अध्ययन किया।
रिपोर्ट में साफ तौर पर उल्लेख किया गया कि लगातार 24 घंटे की ड्यूटी और अत्यधिक काम का बोझ न केवल डॉक्टरों के मानसिक स्वास्थ्य और शारीरिक स्थिति पर गंभीर असर डालता है, बल्कि यह मरीजों की सुरक्षा के लिए भी खतरा पैदा करता है। इस समस्या को हल करने के लिए 1992 में यूनिफॉर्म सेंट्रल रेजीडेंसी स्कीम बनाई गई थी, लेकिन उसके दिशा-निर्देश आज तक ठीक से लागू नहीं किए गए।
नियम तो हैं, लेकिन लागू नहीं
रेजीडेंसी स्कीम 1992: इसमें जूनियर रेजीडेंट्स के लिए 12 घंटे से अधिक लगातार ड्यूटी पर रोक और हफ्ते में 48 घंटे से अधिक ड्यूटी न कराने का प्रावधान है। साथ ही साप्ताहिक अवकाश और वार्षिक छुट्टियों की गारंटी दी गई है।
PGMER गाइडलाइंस 2023: इसमें कहा गया है कि "पीजी छात्र उचित कार्य घंटों में काम करेंगे और पर्याप्त विश्राम दिया जाएगा।" साथ ही 20 दिन का वार्षिक अवकाश और साप्ताहिक छुट्टी का प्रावधान है।
लेकिन डॉ. मित्तल के अनुसार, इन दोनों नियमों की पूरी तरह अनदेखी हो रही है। कॉलेज प्रबंधन और एनएमसी की चुप्पी ने हालात और खराब कर दिए हैं।
आत्महत्याओं के चौंकाने वाले आंकड़े
एनएमसी की रिपोर्ट (10 अगस्त 2022) के अनुसार, पिछले 5 वर्षों में 55 पीजी मेडिकल छात्रों ने आत्महत्या की, जिनमें अनुसूचित जाति वर्ग के छात्रों की संख्या काफी रही।
पूर्व में सामने आए यह मामले
बलमुकुंद भारती (2012, AIIMS दिल्ली) : जातिगत भेदभाव के चलते आत्महत्या।
डॉ. एम. मरिराज (2018, अहमदाबाद) : सहकर्मियों द्वारा भेदभाव के कारण आत्महत्या का प्रयास।
महिला एमबीबीएस इंटर्न (2023, अमृतसर): जातिगत उत्पीड़न से आत्महत्या, प्रोफेसरों और बैचमेट्स पर केस दर्ज।
जेआईपीएमईआर, पुडुचेरी (2024): जूनियर डॉक्टरों ने विभागाध्यक्ष पर जातिगत भेदभाव का आरोप लगाया।
लोकेन्द्र सिंह धांडे (2024, बेंगलुरु): सहपाठियों द्वारा जातिगत उत्पीड़न से आत्महत्या।
डॉ. मित्तल ने द मूकनायक से बातचीत में कहा, "अनुसूचित जाति के छात्र बड़ी मुश्किलों और सामाजिक बाधाओं को पार करके मेडिकल कॉलेज तक पहुंच पाते हैं। लेकिन वहां प्रवेश लेने के बाद भी उन्हें भेदभाव, असमान व्यवहार और अमानवीय ड्यूटी आवर्स जैसी गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ता है। लंबे और लगातार ड्यूटी आवर्स के कारण वे मानसिक और शारीरिक रूप से टूटने लगते हैं, जिससे न केवल उनके करियर पर असर पड़ता है बल्कि कई बार यह उनके जीवन के लिए भी घातक साबित होता है।
मेडिकल शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में काम करने वाले इन छात्रों का भविष्य तभी सुरक्षित हो सकता है जब आयोग इस पूरे मामले में तत्काल और ठोस हस्तक्षेप करे। आयोग का हस्तक्षेप न केवल इन छात्रों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करेगा, बल्कि लाखों प्रतिभाशाली युवाओं के जीवन और भविष्य को भी बचा सकता है।"
क्या है मांगे?
एनएमसी से तुरंत यूनिफॉर्म रेजीडेंसी स्कीम 1992 को लागू कराया जाए।
PGMER 2023 की धारा 5.2(ii) में संशोधन कर 8 घंटे प्रतिदिन और अधिकतम 48 घंटे साप्ताहिक ड्यूटी तय की जाए।
एक स्वतंत्र तीसरे पक्ष की मॉनिटरिंग एजेंसी बनाई जाए जो अनुपालन न होने पर जुर्माना और सजा तय करे।
मेडिकल कॉलेजों में जातिगत भेदभाव की निगरानी और रोकथाम के लिए विशेष समिति बनाई जाए।
यह मामला न केवल अनुसूचित जाति छात्रों के अधिकारों की लड़ाई है, बल्कि भारत की मेडिकल शिक्षा प्रणाली की असलियत भी उजागर करता है। जब डॉक्टर बनने वाले छात्र ही भेदभाव और अमानवीय परिस्थितियों का शिकार हों, तो यह समाज और सरकार दोनों के लिए गंभीर चेतावनी है।
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