1927 में बाबासाहब का भीमा कोरेगांव दौरा: बहुजन के लिए 'न्यू ईयर' कैसे बना 'शौर्य दिवस'? जानिए 1 जनवरी की पूरी स्टोरी!

बाबासाहब के इस दौरे ने 1 जनवरी को सामान्य नववर्ष से बदलकर 'शौर्य दिवस' या 'विजय दिवस' में परिवर्तित कर दिया। पहले यह ब्रिटिश स्मृति था, लेकिन 1927 के बाद यह दलित-बहुजन आंदोलन का ध्रुव बिंदु बन गया। यह घटना महारों की सैन्य गौरव को जातिगत भेदभाव के खिलाफ हथियार बनाती है।
 भीमा कोरेगांव में बाबा साहब का एक दुर्लभ चित्र
भीमा कोरेगांव में बाबा साहब का एक दुर्लभ चित्र (सोशल मीडिया)
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1 जनवरी 2026 को बहुजन समाज फिर से एकजुट होगा। यह दिन केवल कैलेंडर का पहला पन्ना नहीं, बल्कि जातिगत उत्पीड़न के खिलाफ ऐतिहासिक प्रतिरोध का प्रतीक है। 1818 की भीमा कोरेगांव की लड़ाई की 208वीं वर्षगांठ पर हज़ारों लोग पुणे के पास विजय स्तंभ पर जमा होंगे, जहां महार योद्धाओं की वीरता को सलाम किया जाएगा। लेकिन इसकी असली ताकत 1927 से आती है, जब डॉ. भीमराव आंबेडकर (बाबासाहेब) ने इसी दिन विजय स्तंभ का दौरा कर इसे बहुजन आंदोलन का ध्रुव बिंदु बना दिया।

डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर: राइटिंग्स एंड स्पीचेज (बीएडब्ल्यूएस) खंड 17 भाग 3 और विकिपीडिया जैसे प्रामाणिक स्रोतों से प्राप्त जानकारी बताती है कि महारों ने ब्रिटिश पक्ष से क्यों युद्ध लड़ा, यह घटना पेशवा शासन के अत्याचारों का खुलासा करती है और समझाती है कि 1 जनवरी बहुजन समाज के लिए 'शौर्य दिवस' कैसे बन गया। विभिन्न स्रोतों के अनुसार, बाबासाहेब हर साल 1 जनवरी को महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में विजय स्तंभ पर जाते थे, जहां वे महार योद्धाओं को श्रद्धांजलि देते थे।

आप शूरवीरों की संतान हो, यह बात काल्पनिक नही है ! भीमा कोरेगाव जाकर देखो आपके पूर्वजों के नाम वहाँ के विजय स्तंभ पर अंकित किये है....! वह प्रमाण हैं कि तुम भेड़ बकरी की संतान नहीं शेर के बच्चे हो..."
डॉ. बी.आर. अंबेडकर, 25. December, 1927 महाड का भाषण

पेशवा शासन में महारों पर अमानवीय अत्याचार

भीमा कोरेगांव की लड़ाई की जड़ें ब्राह्मणवादी पेशवा शासन के अत्याचारों में हैं। 18वीं सदी के अंत और 19वीं सदी की शुरुआत में पुणे (पेशवाओं की राजधानी) में महार और अन्य अस्पृश्य जातियां पशुओं से भी बदतर जीवन जीने को मजबूर थीं। बाबासाहेब ने अपने लेखन में इन अत्याचारों का मार्मिक वर्णन किया है: "पेशवाओं के शासन में अस्पृश्यों को सड़कों पर चलने की अनुमति नहीं थी; उन्हें खुद को पहचानने के लिए काला धागा पहनना पड़ता था ताकि वे जाति हिंदुओं को अपवित्र न करें। पुणे में, पेशवाओं की राजधानी में, अस्पृश्यों को अपने गले में मिट्टी का बर्तन लटकाना पड़ता था ताकि उनका थूक जमीन पर न गिरे और किसी हिंदू को अपवित्र न करे।" (बीएडब्ल्यूएस खंड 17 भाग 3 से उद्धृत)।

ये नियम महारों को सामाजिक रूप से अलग-थलग रखने के लिए थे। उन्हें गांवों के बाहर रहना पड़ता, मंदिरों में प्रवेश वर्जित था, और रोजगार के नाम पर अपमानजनक काम ही मिलते। पेशवा बाजीराव द्वितीय का शासन ब्राह्मणवादी था, जहां दलितों को सदियों से अपमानित किया जाता रहा। विकिपीडिया के अनुसार, ऐसे में महारों के पास जीविका का कोई साधन नहीं बचा था, इसलिए वे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में भर्ती हो गए। लेकिन यह केवल आर्थिक मजबूरी नहीं थी: यह प्रतिरोध की शुरुआत थी।

1950 में अपने जन्मदिन पर  महार  रेजिमेंट के साथ बाबा साहब
1950 में अपने जन्मदिन पर महार रेजिमेंट के साथ बाबा साहब

क्यों लड़े महार ब्रिटिश पक्ष से 'भारतीय' सेना के खिलाफ?

1 जनवरी 1818 को तीसरे एंग्लो-मराठा युद्ध के दौरान कोरेगांव भीमा में ब्रिटिश कमांडर कैप्टन फ्रांसिस स्टॉटन की 834 सैनिकों वाली टुकड़ी (जिसमें 500 महार पैदल सैनिक प्रमुख थे) ने पेशवा बाजीराव द्वितीय की 28,000 सैनिकों वाली विशाल सेना को 12 घंटे तक रोका। ब्रिटिश पक्ष से 275 सैनिकघायल या मारे गए, जिनमें 22 महार शहीद हुए, उनके नाम (जैसे सोमनाक कमलनाक नायक) आज भी विजय स्तंभ पर अंकित हैं। पेशवा पक्ष से 500-600 हताहत हुए। लड़ाई अनिर्णीत रही, लेकिन इसने पेशवा साम्राज्य के पतन का मार्ग प्रशस्त किया: जून 1818 में बाजीराव ने आत्मसमर्पण कर दिया।

पेशवा सेना के सैनिक और ब्रिटिश सेना के अधिकांश सैनिक लड़ाई को अपनी 'आधिकारिक ड्यूटी' और मजदूरी के रूप में लड़ रहे थे। लेकिन महार योद्धाओं के लिए यह व्यक्तिगत प्रतिशोध था। सदियों के अपमान- काला धागा, थूक का बर्तन, सड़क पर चलने का प्रतिबंध ने उन्हें पेशवा 'ब्राह्मण उत्पीड़कों' के खिलाफ बदला लेने को प्रेरित किया। बीएडब्ल्यूएस में बाबासाहेब लिखते हैं कि महारों को पेशवा काल में 'गैर-सैन्य' घोषित कर दिया गया था, फिर भी ब्रिटिश सेना में उनकी वीरता पुरस्कारों से सम्मानित हुई। यह लड़ाई महारों के लिए खोई हुई गरिमा को पुनः प्राप्त करने और 'ब्राह्मणवादी साम्राज्य' को नेस्तनाबूद करने का अवसर बनी। महारों की यह वीरता ने दलित इतिहास को नई दिशा दी, भले ही लड़ाई ब्रिटिश साम्राज्यवाद का हिस्सा थी।

भारत के वंचितों और दमितों के लिए एक जनवरी सिर्फ नये संकल्प लेने का दिन नहीं है- उससे कहीं ज्यादा है। वे इसे पेशवाओं का राज समाप्त होने की जयंती के रूप में मनाते हैं और इससे उन्हें गरिमापूर्ण जीवन के लिए अपना संघर्ष जारी रखने की प्रेरणा मिलती है।
भारत के वंचितों और दमितों के लिए एक जनवरी सिर्फ नये संकल्प लेने का दिन नहीं है- उससे कहीं ज्यादा है। वे इसे पेशवाओं का राज समाप्त होने की जयंती के रूप में मनाते हैं और इससे उन्हें गरिमापूर्ण जीवन के लिए अपना संघर्ष जारी रखने की प्रेरणा मिलती है।

1927 का ऐतिहासिक दौरा: बाबासाहेब की 'ग्रेट फाइट' भाषण ने जगाया जोश

1927 तक बाबासाहेब ने अस्पृश्यता के खिलाफ सक्रिय आंदोलन शुरू कर दिए थे। 1 जनवरी 1927 को, महाराष्ट्र के कोरेगांव युद्ध स्मारक पर उन्होंने अपने अनुयायियों के साथ विजय स्तंभ का दौरा किया। यह लड़ाई की 109वीं वर्षगांठ थी। बीएडब्ल्यूएस खंड 17 भाग 3 में दर्ज 'ग्रेट फाइट' नामक भाषण में बाबासाहेब ने डिप्रेस्ड क्लासेस की बैठक को संबोधित किया। प्रमुख नेताओं की मौजूदगी में उन्होंने नए साल की शुरुआत की।

भाषण में बाबासाहेब ने महार सैनिकों की वीरता पर प्रकाश डाला: "उनके समुदाय के सैकड़ों योद्धा ब्रिटिश पक्ष से लड़े, जिन्होंने बाद में उन्हें गैर-सैन्य घोषित कर दिया। जाति हिंदू उन्हें अस्पृश्य मानते थे, इसलिए उनके पास जीविका का कोई साधन नहीं था, अंत में वे ब्रिटिश सेना में शामिल हो गए।" उन्होंने 1818 की लड़ाई का विस्तार से वर्णन किया, कैसे छोटी टुकड़ी ने बड़ी सेना को रोका, महार शहीद हुए और स्तंभ पर उनके नाम अमर हैं।

बाबासाहेब का आह्वान था: सैन्य भर्ती पर प्रतिबंध हटाने के लिए आंदोलन करें। उन्होंने कहा, "सरकार को मजबूर करें कि वे प्रतिबंध हटाएं, ताकि वीरता के प्रमाण पर स्टीरियोटाइप टूटे।" यह भाषण केवल स्मृति नहीं, बल्कि जाति व्यवस्था के खिलाफ सक्रिय संघर्ष का न्योता था।

बाबासाहेब के इस दौरे ने 1 जनवरी को सामान्य नववर्ष से बदलकर 'शौर्य दिवस' या 'विजय दिवस' में परिवर्तित कर दिया। पहले यह ब्रिटिश स्मृति था, लेकिन 1927 के बाद यह दलित-बहुजन आंदोलन का ध्रुव बिंदु बन गया। बीएडब्ल्यूएस में वर्णित है कि यह घटना महारों की सैन्य गौरव को जातिगत भेदभाव के खिलाफ हथियार बनाती है। बाबासाहेब ने इसे शिक्षा, नौकरी और आत्म-सम्मान के लिए अस्पृश्यों की राजनीतिक और सामाजिक मुक्ति से जोड़ा।

यह दौरा केवल स्मृति नहीं, बल्कि सक्रिय संघर्ष का प्रारंभ था। बाबासाहेब ने ब्रिटिशों द्वारा बनाए गए इस स्तंभ को दलित सशक्तिकरण का प्रतीक बना दिया। 65 फुट ऊंचे ओबेलिस्क पर अंकित शिलालेख, जो पहले ब्रिटिश विजय का प्रतीक था, अब महारों की 'नायाब वीरता और दृढ़ता' का साक्ष्य बन गया।

हर साल 1 जनवरी को हजारों, लाखों अनुयायी विजय स्तंभ पर जुटते हैं। यह दलित-बौद्ध तीर्थयात्रा बन गई, जहां 'जय भीम' के नारे गूंजते हैं, संविधान की प्रस्तावना का पाठ होता है और बाबासाहेब की मूर्ति पर फूल चढ़ाए जाते हैं। बहुजन आंदोलन में यह दिन महत्वपूर्ण है क्योंकि यह दिखाता है कि दलित इतिहास, ब्रिटिश साम्राज्यवाद के बावजूद, जाति दमन के खिलाफ प्रतिरोध का प्रतीक है। बाबासाहेब ने इसे महार रेजिमेंट की स्थापना से जोड़ा, जो छुआछूत से सम्मान तक का सफर दर्शाता है। बीएडब्ल्यूएस के अन्य भाषणों (जैसे 1935 का येओला और 1936 का कन्वर्जन) में वे कहते हैं कि हिंदू धर्म में समानता असंभव है कोरेगांव जैसी घटनाएं आत्म-सम्मान जगाती हैं।

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