बौद्धिक संपदा क्षति पर ₹127 करोड़ का मुआवजा: 15 माह की टालमटोली पर दलित शोधार्थी बोले— "अगर हम ब्राह्मण होते, महाराष्ट्र सरकार कर चुकी होती अब तक भुगतान"

जेएनयू के शोधार्थी क्षिप्रा ऊके और शिव शंकर दास ने अपनी बौद्धिक संपदा के नुकसान का आकलन करने के लिए प्रख्यात अर्थशास्त्रियों - प्रोफेसर सुखदेव थोरात, डॉ. भालचंद्र मुंगेकर और प्रोफेसर नरेंद्र जाधव - का एक विशेषज्ञ पैनल बनाने का भी प्रस्ताव रखा था।
महाराष्ट्र सरकार ने भी दलित दंपति क्षिप्रा ऊके और शिव शंकर दास के साथ हुए अत्याचार को एक 'अनूठा और दुर्लभ' मामला माना।
महाराष्ट्र सरकार ने भी दलित दंपति क्षिप्रा ऊके और शिव शंकर दास के साथ हुए अत्याचार को एक 'अनूठा और दुर्लभ' मामला माना।Graphic- Asif Nisar/The Mooknayak
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नागपुर- दलित शोधार्थी डॉ. क्षिप्रा ऊके और डॉ. शिव शंकर दास, जिन्होंने भारत में बौद्धिक संपदा को मुआवजे के योग्य संपत्ति के रूप में मान्यता दिलवाने का कानूनी उदाहरण स्थापित किया - पिछले 15 महीनों से न्याय की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

10 नवंबर 2023 को, बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर पीठ ने उनके पक्ष में फैसला सुनाया और महाराष्ट्र सरकार को उनके रिसर्च डेटा के चोरी होने के कारण हुए नुकसान का मुआवजा देने का आदेश दिया।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा 24 जनवरी 2025 को महाराष्ट्र सरकार की विशेष अनुमति याचिका (SLP) खारिज करने के बावजूद, राज्य सरकार उनके चोरी हुए शोध का मुआवजा देने के बॉम्बे हाई कोर्ट के निर्देश की अनुपालना में टालमटोली कर रही है। नागपुर जिला प्रशासन आदेश का पालन सुनिश्चित करने के बजाय, निष्क्रिय बना हुआ है।

हाल में, 10 फरवरी को दंपति ने महाराष्ट्र के समाज कल्याण के प्रिंसिपल सेक्रेटरी को एक औपचारिक मेल किया है जिसमें PoA नियम 12(4) की अनुसूची I के खंड 36-E और धारा 15A-11(D) के अनुसार तत्काल मुआवजे की मांग की गई है।

'द मूकनायक' से विशेष बातचीत में, उन्होंने अपना रुख स्पष्ट किया: "हम अधिकतम तीन से चार हफ्ते इंतजार करेंगे। अगर सरकार कार्रवाई नहीं करती है, तो हम अवमानना की कार्यवाही शुरू करेंगे।"

हालांकि, इस दलित दंपति का कहना है कि देरी 127 करोड़ रुपये की बड़ी मुआवजे की राशि के कारण नहीं बल्कि उनकी 'जाति पहचान' के कारण है।

शिवशंकर दास कहते हैं, "महाराष्ट्र सरकार बहुत धनी है, बुनियादी ढांचे, सड़कों और स्कूलों के लिए बड़ी राशि आवंटित करती है। यह भारत की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। फिर वे हमें मुआवजा क्यों नहीं दे सकते? उनके लिए 100 करोड़ कोई बड़ी राशि नहीं है।"

"अगर यह दावा किसी ब्राह्मण या उच्च जाति के व्यक्ति ने किया होता, तो सरकार बिना किसी हिचकिचाहट के मान जाती - शायद हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी नहीं देती। लेकिन क्योंकि यह मांग तथाकथित 'अछूतों' से आई है, इसलिए इसका विरोध किया जा रहा है," क्षिप्रा ने कहा।

बॉम्बे हाई कोर्ट में स्वयं अपना केस लड़ने वाले इस जोड़े की गहरी कानूनी समझ अनुसूचित जाति/जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत सैकड़ों मामलों के बारीकी से अध्ययन से आती है।

हाथरस गैंगरेप केस से तुलना करते हुए, जहां इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ ने उत्तर प्रदेश सरकार से सवाल किया था कि पीड़ित परिवार को सरकारी नौकरी देने से इनकार क्यों किया जब उच्च जाति के लोगों को ऐसी सुविधाएं दी गईं, डॉ. दास ने कहा: "पीड़ितों ने दिल्ली या नोएडा में पुनर्वास और सरकारी नौकरी की मांग की थी। लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार ने सरकारी नौकरी देने में असमर्थता जताई। अदालत की प्रतिक्रिया उल्लेखनीय थी। अदालत ने कहा, 'आपने तिवारी और गुप्ता को बिना किसी कानून या प्रावधान के नौकरी दी, यहां क्यों नहीं?'"

डॉ. ऊके ने महाराष्ट्र सरकार की हिचकिचाहट पर सवाल उठाते हुए कहा, "अगर महाराष्ट्र भारत को दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने का दावा करता है, तो 127 करोड़ रुपये उनके लिए क्या मायने रखते हैं? और फिर भी, यह राशि हमारे वास्तविक नुकसान की भरपाई मुश्किल से ही करती है - क्योंकि कुछ नुकसान ऐसे हैं जो किसी अदालत द्वारा आंके नहीं जा सकते।"

क्षिप्रा ने कहा, "हमने कोई आंकड़ा हवा में नहीं फेंका है; हमने अपने नुकसान का आकलन करने के लिए विस्तृत गणना प्रस्तुत की है। इसके बावजूद, यह अपर्याप्त लगता है। बॉम्बे हाई कोर्ट ने माना कि हमारी शिक्षा और हमें हुए नुकसान को देखते हुए, हमारे द्वारा बताई गई राशि अनुचित नहीं है। अदालत ने सरकार को स्पष्ट निर्देश दिया कि वह हमारी मांग पर विचार करे।"

यहां तक कि महाराष्ट्र सरकार ने भी दलित दंपति के खिलाफ हुए अत्याचार को एक 'अनूठा और दुर्लभ' मामला माना था। यह स्वीकृति महत्वपूर्ण है, खासकर क्योंकि सरकार के उप सचिव ने 6 सितंबर 2019 को सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के संयुक्त सचिव से मार्गदर्शन मांगा था। पत्र से पता चला कि राज्य सरकार मुआवजा देने के तरीके को लेकर असमंजस में थी, क्योंकि अनुसूचित जाति/जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन अधिनियम 2015 में इसके लिए विशेष प्रावधान नहीं थे। इस अनिश्चितता के कारण राज्य को केंद्र सरकार से निर्देश मांगने पड़े।

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यूं तारीख पर तारीख लेती रही सरकार

10 नवंबर 2023 को रिट याचिका 759/2022 में हाई कोर्ट के आदेश के बाद से, जिसमें जिलाधिकारी (डीएम) को याचिकाकर्ताओं की 10-सूत्रीय मांगों की जांच करने का निर्देश दिया गया था, महाराष्ट्र सरकार ने बार-बार समय सीमा बढ़ाने की मांग की है, जिससे 15 महीनों से अधिक समय बाद भी आदेश का पालन नहीं हो सका। कई बार समय सीमा बढ़ाए जाने के बावजूद, डीएम जांच पूरी नहीं कर पाए।

14 मार्च 2024 को, राज्य सरकार ने पहली बार जांच पूरी करने के लिए 9 महीने का समय मांगा। संसदीय चुनाव और डीएम की चुनाव प्रक्रिया में महत्वपूर्ण हिस्सेदारी को देखते हुए अदालत ने 3 महीने का एक्सटेंशन दिया, साथ ही यह स्पष्ट निर्देश दिए कि आगे किसी भी समय विस्तार के लिए अदालत जाने से पहले याचिकाकर्ताओं को सूचित किया जाना चाहिए।

" सरकार को पहली मोहलत कोर्ट ने हमारा पक्ष सुने बिना दिया। इसलिए अगली सुनवाई में जब दोबारा समय मांगा गया, तो हमने विरोध किया," क्षिप्रा ने कहा।

14 जून 2024 की अगली सुनवाई में राज्य ने यह कहते हुए 6 महीने का और समय मांगा कि उन्हें और वक्त की जरूरत है। याचिकाकर्ताओं ने इसका जोरदार विरोध किया और कहा कि अदालत के निर्देश को चुनौती देने के लिए एक्सटेंशन की मांग नहीं की जा सकती है। हालांकि, जिला कलेक्टर के संसदीय चुनावों में व्यस्त होने और आचार संहिता की वजह से हुई देरी का हवाला देते हुए अदालत ने 5 महीने का अतिरिक्त समय दिया।

21 नवंबर 2024 की तीसरी सुनवाई में, राज्य ने एक बार फिर 6 महीने का एक्सटेंशन मांगा। याचिकाकर्ताओं ने इसका विरोध किया, लेकिन अदालत ने पाया कि देरी की एकमात्र वास्तविक वजह डीएम का विधानसभा चुनावों और सरकारी कामों में व्यस्त होना था। नतीजतन, अदालत ने अंतिम 8 हफ्तों की मोहलत ग्रांट की, जिसका मतलब था कि 16 जनवरी 2025 तक आदेश का पालन करना था।

लेकिन 16 जनवरी को समय सीमा समाप्त होने के बाद भी अधिकारी अनिर्णित हैं।डॉ. ऊके कहती हैं, "तब से कलेक्टर ने हमारे साथ दो बैठकें की हैं, फिर भी लगता है उन्हें समझ नहीं आ रहा कि हमें हुए नुकसान का आकलन कैसे करें।"

दंपति ने उनकी बौद्धिक संपदा के नुकसान का आकलन करने के लिए कलेक्टर द्वारा नागपुर विश्वविद्यालय के शिक्षकों के चयन पर भी कड़ा सवाल उठाया, इसे मूल्यांकन की विश्वसनीयता और सटीकता को कमजोर करने का जानबूझकर किया गया प्रयास बताया।
दंपति ने उनकी बौद्धिक संपदा के नुकसान का आकलन करने के लिए कलेक्टर द्वारा नागपुर विश्वविद्यालय के शिक्षकों के चयन पर भी कड़ा सवाल उठाया, इसे मूल्यांकन की विश्वसनीयता और सटीकता को कमजोर करने का जानबूझकर किया गया प्रयास बताया।

कलेक्टर की कमेटी बौद्धिक संपदा के नुकसान का आकलन करने में विफल रही?

अदालत के आदेश के अनुपालन में नागपुर के जिलाधिकारी ने कुछ समय पहले मांगों की जांच के लिए एक कमेटी का गठन किया था। क्षिप्रा और शिव शंकर ने उनके नुकसान के आकलन और हाई कोर्ट द्वारा जारी 10-सूत्रीय निर्देश को पूरा करने में कमेटी की विफलता की कड़ी आलोचना की।

डॉ. ऊके ने बताया, "जब केस चल रहा था, राज्य ने कभी यह नहीं नकारा कि हमें भारी नुकसान हुआ है। हमारे दावे पर सरकार ने दो आपत्तियां उठाईं: पहली कि अनुसूचित जाति/जनजाति (अत्याचार निवारण) कानून केवल भौतिक संपत्ति - जैसे घर या चल संपत्ति - के लिए मुआवजा देता है, और यह बौद्धिक संपत्ति या शोध डेटा पर लागू नहीं होता। दूसरा, उन्होंने यह तर्क दिया कि हमारा नुकसान 'अगणनीय' है, यह दावा करते हुए कि सरकार के पास अमूर्त नुकसान की गणना करने का कोई तरीका नहीं है।"

इसका जवाब देने के लिए, डॉ. ऊके और डॉ. दास ने खुद अपनी बौद्धिक संपत्ति के नुकसान का मूल्यांकन करने के दो ठोस तरीके प्रस्तावित किए, जिसपर अदालत में विचार किया गया:

  • बाहरी/उपकरणीय मूल्य: ₹3,91,85,000/-

  • आंतरिक मूल्य: ₹127,55,11,600/-

अदालत के फैसले में कलेक्टर को स्पष्ट निर्देश दिया गया था कि वे अनुपालन रिपोर्ट तैयार करने में उनके द्वारा बताई गणनाओं की समीक्षा करें और उन पृष्ठों का संदर्भ लें जहां ये तरीके समझाए गए थे।

इसके जवाब में, जनवरी 2025 में, कलेक्टर ने नागपुर विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर सहित एक कमेटी बनाई, जो नुकसान का आंकलन करे। लेकिन कमेटी कोई ठोस मूल्यांकन नहीं दे पाई। दास ने कहा "हमें इस कमेटी का नतीजा भी नहीं पता क्योंकि हमें 9 जनवरी 2025 की मीटिंग की रिपोर्ट या मिनट्स नहीं दिए गए।"

"कलेक्टर ने 2021 में भी ऐसी ही कोशिश की थी, जब उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय के 4 प्रोफेसरों की एक कमेटी बनाई थी। जहां तक हमें पता है, कमेटी ने सिर्फ उपकरणों के नुकसान (केवल कच्चा डेटा) की कीमत 15 लाख रुपये बताई थी। लेकिन अजीब बात यह है कि हाई कोर्ट में कई हलफनामे और अर्जियां दाखिल करने के बावजूद राज्य ने कभी भी कोर्ट में इस सिफारिश का जिक्र नहीं किया," डॉ. उके ने बताया।

"क्यों? क्योंकि वे बस किसी भी आंकड़े को आधिकारिक तौर पर दर्ज नहीं करना चाहते। ऐसा लगता है कि वे हमें महज ₹5,000-₹10,000 देने में सहज हैं - जो उनके हिसाब से 'उचित' है - बजाय इसके कि हमारे वास्तविक नुकसान को स्वीकार करें," शिप्रा ने व्यंगात्मक अंदाज में कहा।

महाराष्ट्र सरकार ने भी दलित दंपति के खिलाफ हुए अत्याचार को एक 'अनूठा और दुर्लभ' मामला माना था।

विश्वविद्यालय शिक्षकों को विशेषज्ञों की जगह क्यों लिया ? - दंपति ने सरकार की नीयत पर उठाया सवाल

दंपति ने उनकी बौद्धिक संपदा के नुकसान का आकलन करने के लिए कलेक्टर द्वारा नागपुर विश्वविद्यालय के शिक्षकों के चयन पर भी कड़ा सवाल उठाया, इसे मूल्यांकन की विश्वसनीयता और सटीकता को कमजोर करने का जानबूझकर किया गया प्रयास बताया।

डॉ. दास बोले, "वे स्थानीय विश्वविद्यालय के शिक्षकों को क्यों लाए? उनके पास हमारे नुकसान का आकलन करने की विशेषज्ञता नहीं है, और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्हें आसानी से प्रभावित किया जा सकता है। ये शिक्षक तो सरकारी अधिकारियों के स्तर के भी नहीं हैं, बौद्धिक संपदा मूल्यांकन के विशेषज्ञ तो दूर की बात है।"

दंपति ने सक्रिय रूप से तीन प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों और शिक्षाविदों - जो सभी अपने क्षेत्र के प्रमुख नीति-निर्माता और दिग्गज हैं - को कमेटी में शामिल करने का सुझाव दिया था।

1. प्रोफेसर सुखदेव थोरात - यूजीसी के पूर्व अध्यक्ष और प्रमुख अर्थशास्त्री

2. डॉ. भालचंद्र मुंगेकर - मुंबई विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति, आरबीआई और योजना आयोग में महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई

3. प्रोफेसर नरेंद्र जाधव - पूर्व राज्यसभा सांसद, अर्थशास्त्री और शिक्षाविद

ये तीनों विशेषज्ञ दलित समुदाय से हैं और नीति-निर्माण और शासन में महत्वपूर्ण अनुभव रखते हैं, जो उन्हें हुए नुकसान के वित्तीय और बौद्धिक पैमाने का निष्पक्ष मूल्यांकन करने के लिए अत्यधिक योग्य बनाता है।

"महाराष्ट्र सरकार इन विशेषज्ञों के साथ हमारे नुकसान का आकलन करने के लिए एक पैनल क्यों नहीं बनाती?" डॉ. ऊके चुनौती भरे लहजे से कहती हैं . "उन्हें हमारी गणनाओं की जांच करने दें - अगर उन्हें हमारे द्वारा बताई गई राशि या हमारे मूल्यांकन के तरीके अनुचित लगते हैं, तो हम पुनर्विचार करेंगे। लेकिन हम साधारण विश्वविद्यालय के शिक्षकों द्वारा किए गए आकलन को कैसे स्वीकार कर सकते हैं, जिनके पास इस मामले में न तो विशेषज्ञता है और न ही अधिकार?"

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अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार के मामले में बौद्धिक संपदा को एक संपत्ति के रूप में न्यायिक मान्यता दिलवाकर एक मिसाल कायम करने वाले इस युगल के हौसले और बुद्धिमत्ता की सर्वत्र चर्चा हो रही है. डॉ. क्षिप्रा ऊके और डॉ. शिव शंकर दास को लगातार फोन कॉल्स, बधाई के सन्देश मिल रहे हैं। दुनिया भर से उनके मेल बॉक्स और सोशल मीडिया हैंडल पर संदेश आ रहे हैं।

"हमने कभी नहीं सोचा था कि हमारी लड़ाई इतनी व्यापक प्रतिक्रिया जगाएगी। कई प्रमुख मीडिया संस्थानों ने हमारी कहानी को कवर किया, लेकिन सबसे पहले 'द मूकनायक' की रिपोर्ट ने जिस तरह से इस बात को उठाया, उससे हमारे समुदाय को इस मुद्दे के गहरे महत्व को समझने में मदद मिली। बहुत-बहुत धन्यवाद!" दंपति ने मिली प्रतिक्रिया से अभिभूत होकर कहा।

बहरहाल, मुआवजे के लिए इस लड़ाई में नवीनतम घटनाक्रम यह है कि नागपुर कलेक्टर ने उनका पत्र समाज कल्याण विभाग के प्रिसिपल सेक्रेटरी को भेज दिया है। अब मामला मंत्रालय स्तर पर पहुंच गया है, और दंपति महाराष्ट्र सरकार के अगले कदम पर नजर रखे हुए हैं।

हालांकि, वे अपने रुख पर अडिग हैं: "अगर भारत कानून के शासन को बनाए रखने और न्याय देने में विफल रहता है, तो हम अपना मामला अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों तक ले जाने में संकोच नहीं करेंगे," दंपति ने दोहराया।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद,अब सवाल यह है: क्या महाराष्ट्र न्याय की रक्षा करेगा, या इन दलित शोधार्थियों को अपने अधिकार का दावा करने के लिए एक और कानूनी लड़ाई लडनी होगी?

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