जाति की दीवार तोड़ जब ठाकुर का बेटा हलवाहे की बेटी संग भागा… फिर जो हुआ वो ‘भूतगांव’ की दिल दहला देने वाली कहानी है!

जातीय भेदभाव, पलायन और सामाजिक विडंबनाओं को उजागर करता उत्तराखंड की पृष्ठभूमि पर लिखा गया मार्मिक उपन्यास — "भूतगांव"
Naveen Joshi's "Bhootgaon": When Hiruli, the daughter of a ploughman, becomes Hira of Virendra Singh, even then caste-based oppression does not leave her
भूतगांव: पहाड़ के गांवों की पारंपरिक जातिगत व्यवस्था में उजड़ते घरों की मार्मिक कहानीफोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक
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उत्तराखंड के आधुनिक इतिहास की पृष्ठभूमि में विकास की विसंगतियों और उजड़ते गांवों की कथा को मार्मिक ढंग से कहने वाले चर्चित लेखक नवीन जोशी की "भूतगांव" रचना अपने आप में अद्वितीय है। इस उपन्यास के माध्यम से वह पहाड़ों में बसने वाले गांवों के समुदायों के बीच लंबे समय से चली आ रही जातिगत प्रताड़नाओं, शोषण, तिरस्कार और सामाजिक भेदभाव की सतही कहानी कहते हैं।

राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित "भूतगांव" उपन्यास की कहानी शुरू होती है सेना से रिटायर्ड फौजी आनंद सिंह और उनके पालतू कुत्ते शेरू से। कहानी के मुख्य पात्र वीरेन्द्र सिंह नेगी उर्फ वीएस नेगी और हीरा होती है।

यह उपन्यास शुरू तो होता है अलग-अलग कहानी के किरदारों से लेकिन अंत में पूरी कहानी एकदूसरे से आकर ऐसे मिलते हैं कि पाठक को अचानक पता चलता है। उपन्यास के शुरुआती किरदार आनंद सिंह कहानी के मुख्य पात्र वीरेन्द्र के भाई निकलते हैं। 

उपन्यास की शुरुआत उत्तराखंड के पहाड़ों की खूबसूरती के बीच वीरान हो चुके गांव और जीविकोपार्जन के लिए शहरों की ओर हमेशा के लिए चले गए कुछेक घरों के परिवारों से होती है। आर्मी से रिटायर्ड आंनद सिंह अपने पालतू कुत्ते शेरू के साथ इस सूने हो चुके गांव में घूमते हैं। एक पेंशनधारी, फौज से सेवानिवृत्त हो चुके बूढ़े आंनद सिंह ख़ुद के अस्तित्व से गांव की जिजीविषा में जान डालने की कोशिश में कभी स्थानीय ग्राम देवताओं को याद करते हैं, और कभी कुछ घरों के महत्वपूर्ण परिवारों के बारे में अपने शेरू को कहानियां सुनाते हैं।

गांव के कई घरों की कहानियां अपने कुत्ते शेरू को सुनाते-सुनाते उपन्यास के आख़िरी में वह खुद अपने परिवार की कहानी ही शुरू कर देते हैं। तब पाठक कहीं जान पाता है कि आनंद सिंह उपन्यास के नायक वीरेन्द्र सिंह नेगी के छोटे भाई हैं।

पूरे उपन्यास में अध्याय-दर-अध्याय कभी शेरू और आनंद सिंह की कहानी चलती है, तो कभी अगले अध्याय में समानांतर वीरेन्द्र सिंह (वी एस नेगी) की कहानी चलती है। आनंद सिंह और शेरू के अध्याय में जहां आपको पहाड़ के गांवों में परिवारों के पलायन के बाद की ज़मीनी तबाही समझ में आती हैं, वहीं वीरेन्द्र सिंह और हीरा के अध्याय की कहानी में जातीय हीनता के भाव में घुट घुटकर जीवन जीती हिरूली उर्फ हीरा की पीड़ा आपको समाज के तानेबाने को समझाती है, मगर थोड़ा दुखी भी करती है।

दरअसल, वीरेन्द्र सिंह ठहरे राजपूत (ठाकुर) परिवार के, और हीरा उसी गांव के हलवाहे की बेटी है। हीरा के पिता चरनराम वीरेन्द्र सिंह के यहां मजूरी करते हैं। उसी बीच वीरेन्द्र का दिल हिरूली पर आ जाता है, और वीरेन्द्र हिरूली को लेकर भाग जाता है। ट्रेन में उनकी मुलाक़ात लखनऊ में सिंचाई विभाग में एक बड़े अधिकारी के एक कर्मचारी से होती है, जो उन दोनों भागे हुए जोड़ों को अपने अधिकारी से मिलवाता है। फिर दोनों उसी अधिकारी की बड़ी सी आलीशान कोठी में रहने लगते हैं। अधिकारी दंपति दोनों की शादी आर्य समाज मंदिर में कराते हैं और हिरूली का नाम हीरा हो जाता है। जबकि वीरेन्द्र का नाम वी एस नेगी।

अच्छे पारिवारिक माहौल में रहते हुए वीरेन्द्र और हीरा शहरी तौर तरीके सीखने का यत्न करते हैं। दोनों मिलकर अधिकारी दंपति का मां-बाप की तरह सेवा करते हैं। अधिकारी दंपत्ति के पास कोई बच्चा नहीं होने से वीरेन्द्र और हीरा उनके अत्यंत प्रिय हो चुके होते हैं। दोनों के दो बच्चे होते हैं- विनायक, और मीरा.

कुछ सालों तक सब कुछ अच्छा चलता है। अधिकारी दंपति अध्यात्म की राह पर घर-द्वार छोड़कर संतों के बीच चले जाते हैं। इधर वीरेन्द्र की संविदा की नौकरी स्थायी हो जाती है। फिर हीरा के जीवन में जो आंधी शुरू होती है, पाठक उस पीड़ा को उपन्यास के खत्म होने तक नहीं भूल पाता।

बीतते समय के दौरान, वीरेन्द्र को लगने लगता है कि उसने एक हलवाहे की बेटी, निम्न जाति की लड़की को साथ भगा लाकर बहुत गलत किया, चूंकि वह ठहरी पहाड़ की अल्हड़ लड़की और वीरेन्द्र बन चुका था सरकारी कर्मचारी।

कहानी में ममता, करुणा, जातीय हीनता का अपराध बोध, दाम्पत्य जीवन में इंटरकास्ट मैरिज के बाद ढ़ेरों अपमानों, और अंतर्द्वंद्व की पीड़ाओं के घूंट पीकर रोज़ाना जीने वाली  उत्तराखंड के सतौर गांव की हिरूली जो अब हीरा नाम से जानी जाती है, पाठक के दिल को उपन्यास के ख़त्म होने तक रह रहकर बेधती रहती है।

सतौर गांव में हलवाहे दक्षिण दिशा में बसे होते हैं। चनरराम हलवाहे की बेटी हिरूली के वीरेन्द्र के साथ भाग जाने के बाद गांव के लोग दोनों परिवारों में ऐसी आग लगाते हैं कि दोनों घरों के परिवार लगभग उजड़ जाते हैं।

चरनराम ब्राह्मणों और ठाकुरों के घर गुलामों की तरह काम करते थे। जब हिरूली अपने घर से वीरेन्द्र के साथ गई तब उसके घर वालों के साथ जो हुआ था, उस मंजर के बारे में किताब आख़िरी के पन्नों में कहानी बयां करती है।

राजपूतों के घरों के मर्द हिरूली के पिता चरनराम और भाई को मारते-मारते अधमरा कर देते हैं। पहले तो वह समझ नहीं पाते कि आखिर उन्हें क्यों पीटा जा रहा है। बाद में उन्हें मालूम होता है कि उसकी अपनी बेटी हिरूली उनके बेटे के साथ चली गई है।

उपन्यास में बताया जाता है कि जब चरनराम को पीटा जाता है तब उसे मानसिक रूप से भी खूब प्रताड़ित किया जाता है। पीटने वाले कहते हैं,  "... मेरा ही घर मिला था स्साले! जवान लड़की को ब्याह नहीं कर सकता था... इसलिए बैठा रखा था उसे घर में!" 

सबने उसे खूब गालियां दी। जवान लड़की को अब तक ना ब्याहने और उसे काबू में न रखने के लिए उसकी खूब लानत-मलामत की जाती है। सारा दोष चरनराम और हीरा के सर डालने के बाद उसे फैसला सुनाया गया की रातों-रात जाकर हिरुली को ढूंढ कर घर वापस ले आना। नहीं तो सुबह होने तक गांव छोड़ देना और कभी अपना मुंह मत दिखाना।

इधर वीरेन्द्र का परिवार भी राजपूत होने के बावजूद परंपरागत दकियानूसी जाति व्यवस्था के काले कोप से नहीं बच पाता है। वीरेन्द्र के हिरूली के साथ जाने के बाद वीरेन्द्र के रिश्तेदार और गांव के उच्च वर्ग के लोग उसके घर पानी पीना तक छोड़ देते हैं। वीरेन्द्र की बहन का रिश्ता तक कोई तय करने के लिए तैयार नहीं था। अंत में वह अपमानित महसूस करते हुए नदी में कूद कर आत्महत्या कर लेती है।

उपन्यास बड़ी संजीदगी से समाज में गहरे बैठे जातीय भेदभाव को उजागर करती है। अंत में दो अध्यायों में समानांतर चलने वाले आनन्द सिंह और वीरेन्द्र व हीरा की कहानी आपस में आकर मिल जाती है। वीरेन्द्र द्वारा दी जाने वाली मानसिक यातना और जातिगत हीनता के अपराध बोध में हीरा कई महीनों तक जिंदा लाश बनकर जीती है। फिर उसकी मौत हो जाती है। उसके कुछ सालों बाद वीरेन्द्र उर्फ वीएस नेगी की भी मौत हो जाती है। 

वीरेन्द्र और हीरा के अध्याय में पाठक को उपन्यास यह भी मार्मिक रुप से समझाने की कोशिश करती है कि, अक्सर उन परिवारों के बुजुर्गों की क्या मनोदशा होती है जब उनके बच्चे बड़े होकर बाहर बहुत दूर चले गए होते हैं। फिर कभी कभी उनके मां-बाप उन्हें देख पाते हैं। कैसे दुनियाभर की व्यवस्थाएं और सुख-सुविधाएँ फीके पड़ जाते हैं उन बुजुर्गों के सामने!

कहानी में आखिरी में बचते हैं वीरेन्द्र के दोनों बच्चे- विनायक और मीरा। वीरेन्द्र की मौत के तुरंत बाद दोनों पहुंचते हैं उत्तराखंड के सतौर गांव अपने माता-पिता के घरों की टोह लेने। लेकिन वहां उन्हें "भूतगांव" के अलावा कुछ नहीं मिलता। पूरा वीरान पड़ा गांव। यहीं वह अपने चाचा आनंद सिंह से भी मिलते हैं। हालांकि, शेरू, जिससे आनंद सिंह बातें करते थे अपना खालीपन भरने के लिए, उसे बाघ उठा ले गया होता है। जिससे आनंद सिंह अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैं। अन्ततः दोनों बच्चों के मन में पिता के प्रति एक गुस्सा बैठ जाता है कि- वीएस नेगी ने मां (हीरा) के साथ बहुत ग़लत किया।

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