धर्मान्तरण मसले पर आखिर क्यों डॉ. आंबेडकर ने इस्लाम और ईसाई धर्म को ठुकराया था? असली वजह जानकर आप चौंक जाएंगे!

डॉ. आंबेडकर ने क्यों नहीं अपनाया इस्लाम या ईसाई धर्म? नवयान बौद्ध धर्म चुनने के पीछे के गहरे और तार्किक कारण.
Why did Dr. Ambedkar not adopt Islam and Christianity?
डॉ. आंबेडकर ने इस्लाम और ईसाई धर्म क्यों नहीं अपनाया?ग्राफिक- राजन चौधरी, द मूकनायक
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डॉ. बी.आर. आंबेडकर द्वारा हिन्दू धर्म को छोड़ने की घोषणा के बाद देशभर के लगभग सभी धर्मों के प्रतिनिधि उनसे मिलने लगे, सबकी यही होड़ थी कि डॉ. आंबेडकर उनका धर्म अपना लें। लेकिन, बाबासाहेब ने सभी धर्मों के प्रतिनिधियों को, उनकी बातों और तर्कों को ध्यानपूर्वक सुना। उसके बाद स्वयं भी पत्रों, किताबों और तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था को करीब से परखने का काम भी किया, ताकि यह सामने आ सके कि वह हिन्दू धर्म छोड़ने के बाद किस धर्म को अपनाएंगे!

डॉ. आंबेडकर के हिन्दू धर्म त्याग की बात तो लगभग सर्व विदित है, क्योंकि बाबासाहेब ख़ुद हिन्दू धर्म की जाति-व्यवस्था, धार्मिक कुरीतियों, शोषण आदि पर खुलकर बोलते थे, और पूरी दुनिया को बताते थे। लेकिन इसके बाद के धर्मों जैसे- इस्लाम और ईसाई धर्म में उन्हें क्या खोट दिखी जिसे अपनाने से वह मुह मोड़ लिए, यह जानना बेहद दिलचस्प हो जाता है।

डॉ. रतन लाल द्वारा संकलित क़िताब "धर्मान्तरण: आम्बेडकर की धम्म यात्रा" के अनुसार, इस्लाम और ईसाई को न चुनने के डॉ. आंबेडकर के पास कई महत्त्वपूर्ण कारण थे, जिसका जिक्र अशोक गोपाल ने नवयान पब्लिशिंग से प्रकाशित किताब "अ पार्ट अपार्ट द लाइफ़ एंड थॉट ऑफ़ बी. आर. आंबेडकर" में विस्तार से किया है।

1920 के दशक की शुरुआत में, आंबेडकर का इस्लाम के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण था क्योंकि उनका मानना था कि इसमें 'सभी को गले लगाने की शक्ति' है। लेकिन 1929 में उन्होंने भारत में मुस्लिम नेताओं का एक परेशान करनेवाला पहलू देखा। अजमेर के एक आर्य समाजी सदस्य हर बिलास सारदा द्वारा केन्द्रीय विधानमंडल में एक विधेयक पेश किया गया, जिसमें लड़‌कियों और लड़कों के लिए विवाह की आयु क्रमशः चौदह और अठारह वर्ष निर्धारित की गई थी। इसे सारदा विधेयक के नाम से जाना जाता है।

मुस्लिम सदस्यों ने इसका कड़ा विरोध इस आधार पर किया कि यह इस्लामा सिद्धान्त के विरुद्ध था। बाल विवाह निरोधक अधिनियम 1929 के रूप में कानून लागू होने के बाद मुस्लिम नेताओं ने एक आन्दोलन शुरू किया, जो सविनय अवज्ञा आन्दोलन से प्रभावित हुआ।

24 दिसम्बर, 1932 को जनता में प्रकाशित एक पत्र में लंदन से लिखते हुए आंबेडकर ने लिखा कि इस घटना ने उन्हें सामाजिक सुधार के प्रति मुस्लिम नेताओं के रवैये के बारे में पहला बड़ा झटका दिया। बाद में, तीसरे गोलमेज सम्मेलन के दौरान, उन्होंने सामाजिक सुधार की दिशा में नेताओं को जाल में फंसाया।

सनातनी हिन्दुओं ने मन्दिर-प्रवेश बिल के खिलाफ़ समर्थन माँगने के लिए मुस्लिम प्रतिनिधियों से सम्पर्क किया और जाहिर तौर पर उनसे सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली। इस घटना से, आंबेडकर ने सीखा कि तुर्की के कमाल पाशा के विपरीत, भारतीय मुसलमानों के नेता सनातनी हिन्दुओं की तरह छोटे दिमाग़वाले और प्रतिगामी हो सकते हैं। इसलिए, उन्होंने इस्लाम में धर्मान्तरित अछूतों को बेहद सतर्क रहने की सलाह दी।

दो साल बाद, उन्हें मुसलमानों के बीच जाति-मानसिकता का व्यक्तिगत अनुभव हुआ, जिसे उन्होंने "वेटिंग फॉर ए वीजा" में याद किया कि, "एक व्यक्ति जो हिन्दुओं के लिए अछूत है, वह मुसलमान के लिए भी अछूत है।"

शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में ईसाइयों द्वारा किये जा रहे काम की वजह से ईसाई धर्म के प्रति आंबेडकर का दृष्टिकोण अधिक सकारात्मक था। फिर भी, यह अछूतों को ईसाई धर्म की सिफारिश करने के लिए इच्छुक नहीं थे क्योंकि यह अछूत धर्मान्तरित लोगों की सामाजिक स्थिति में कोई बदलाव लाने में विफल रहा था।

उन्होंने लिखा, "... धर्म-परिवर्तन से धर्मान्तरित अस्पृश्य के सामाजिक दर्जे में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। भले ही कोई अस्पृश्य ईसाई बन गया हो पर आम हिन्दू की नजरों में वह अस्पृश्य ही रहता है।"

धर्मान्तरित भारतीय ईसाइयों के बीच भी जातिभेद, नस्ल, संस्कार, रहन-सहन वैसे ही बने हुए थे, जैसे हिन्दुओं में थे। ईसाइयों के बीच शिक्षित लोग बड़े पैमाने पर स्पृश्य वर्ग से थे, और वे 'ईसाइयों के निम्न या अछूत वर्ग' की परवाह नहीं करते थे। भारतीय ईसाइयों के दो वर्गों के बीच कोई रिश्तेदारी नहीं थी। एक प्रान्त के ईसाई दूसरे प्रान्तों के ईसाइयों की तुलना में स्थानीय हिन्दुओं के अधिक करीब महसूस करते थे। आंबेडकर एक अन्य कारण से भी ईसाई में धर्मान्तरण में रुचि नहीं रखते थे। उनकी संख्या कम होने के कारण और शिक्षा, स्वास्थ्य और उनकी कई अन्य जरूरतों के लिए सरकार के बजाय उनके मिशनों पर उनकी निर्भरता के कारण, भारतीय ईसाई 'सार्वजनिक जीवन में एक ताकत' नहीं थे।

स्पष्ट है कि 1940 के दशक के शुरुआती दिनों तक धर्मान्तरण के मुद्दे पर आंबेडकर का दृष्टिकोण चिन्ताओं से भरा था। वह हिन्दू धर्म को छोड़ने के बारे में दृढ़ थे, लेकिन कोई भी विकल्प उनकी सभी आवश्यकताओं को पूरा नहीं करता था। हिन्दू धर्म को त्यागने के उनके कारण बहुत गहरे थे, लेकिन एक विकल्प के रूप में उनका चुनाव व्यावहारिक विचारों से प्रेरित था।

वह अस्पृश्यों को हिन्दुओं से अलग करने के लिए दृढ़ थे, लेकिन वह नहीं चाहते थे कि ऐसा विधायिकाओं में आरक्षण खोने की क्रीमत पर हो। तेजी से बढ़ते साम्प्रदायिक माहौल में, वह इस बात से भी चिन्तित थे कि अगर आबादी का एक बड़ा हिस्स्सा इस्लाम में परिवर्तित हो गया तो हिन्दुओं का क्या होगा। वह धर्मान्तरण के बारे में दृढ़ थे, लेकिन वह इस पर सोचने के लिए समय देना चाहते थे। आंबेडकर के जागरूकता अभियान का दलितों पर पड़े प्रभाव का उल्लेख दलित मराठी लेखक शंकरराव खरात और वसंत मून ने अपनी आत्मकथाओं में किया है, जिसका परिणाम बीस साल बाद देखने को मिला, जब नागपुर में आंबेडकर के साथ लगभग 5,00,000 लोगों ने बौद्ध धर्म अपना लिया।

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