
सर्दियों के बढ़ते ही दिल्ली और पूरे देश में प्रदूषण का बढ़ना तय होता है। दिल्ली और आस-पास या पूरे देश में सर्दियों के आते ही प्रदूषण अपना असर दिखना शुरू कर देता है। इसका असर इतना बढ़ गया है कि दिल्ली सरकार ने कई तरह की पाबंदियां भी लगा दी है। प्रदूषण का असर सभी पर एक जैसा नहीं पड़ता है। उस तबके के बारे में सोचे जो पूरी तरह से खुले में रहते हैं, या अपने काम को लेकर उनको बाहर ही रहना पड़ता है। यह वह लोग हैं जो बीमार होने पर भी अपना इलाज अच्छे से नहीं करा पाते। आज हम इसी के बारे में कुछ जानने की कोशिश करेंगे। पहले जानते हैं कि प्रदूषण क्या है और क्यों है।
उत्तर भारत में सर्दियों में हवा की बिगड़ती गुणवत्ता ने एक बार फिर हमारे स्वास्थ्य पर वायु प्रदूषण के हानिकारक प्रभावों को लोगों के ध्यान में ला दिया है। खराब हवा के संपर्क में आने का प्रभाव शरीर के हर अंग पर महसूस होता है और समाज के कमजोर लोगों - बच्चों, बुजुर्गों, गर्भवती महिलाओं और पहले से ही किसी स्वास्थ्य समस्या से जूझ रहे लोगों पर इसका असर सबसे ज्यादा पड़ता है। भारत में, 2019 में, सभी मौतों में से 17.8% और श्वसन, हृदय और अन्य संबंधित बीमारियों में से 11.5% प्रदूषण के उच्च जोखिम के कारण हैं ( द लांसेट )। इस सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल के परिणामस्वरूप वायु प्रदूषण नीति निर्धारण में स्वास्थ्य को केंद्रीय बनाने की मांग उठने लगी है। कुछ दिनों तक रहता तो जरूर मिली। वायु प्रदूषण (Air Pollution) का स्तर 'गंभीर' स्तर पर पहुंच गया है। रविवार को कई इलाकों में वायु औसत गुणवत्ता सूचकांक (AQI) 400 के पार पहुंच गया। जहांगीरी पुरी में एक्यूआई 404, तो वहीं दक्षिणी दिल्ली के नेहरू नगर में एक्यूआई 393 दर्ज किया गया। इससे पहले शनिवार को दिल्ली में प्रदूषण का स्तर 'बहुत खराब' श्रेणी में पहुंच गया था। प्रदूषण की निगरानी करने वाली एजेंसियों का अनुमान है कि आने वाले दिनों में प्रतिकूल मौसमी परिस्थितियों के चलते इसके और भी खराब होने की आशंका है। हालांकि, दिल्ली के पर्यावरण मंत्री गोपाल राय का कहना है कि पड़ोसी राज्यों में इस साल पराली जलाने की घटनाएं पिछले साल के मुकाबले कम हुई हैं और इसके मद्देनजर दिल्ली के प्रदूषण में पराली जलाने की घटनाओं का योगदान कम होने की उम्मीद है।
विशेषज्ञों का अनुमान है कि यह और भी खराब होगा, जैसा कि पिछले वर्षों में देखा गया था। इस अवधि के दौरान, एनसीआर क्षेत्र और उसके आस-पास राज्य सरकारों के बीच वार्षिक दोषारोपण का खेल जल्द ही शुरू हो जाएगा। हालाँकि, ध्यान देने योग्य बात यह है कि सबसे अधिक प्रभावित आबादी और आवश्यक सावधानियाँ।
पिछले एक दशक से दिल्ली सबसे प्रदूषित शहर का तमगा लेकर अपनी पहचान छुपाता फिर रहा है। लाख प्रयासों के बाद भी इसमें सुधार की कोई सम्भावना नहीं दिखती, धीरे-धीरे यही इस शहर की नियति बनती जा रही है। दिल्ली तो टोकियो के बाद दुनिया का सबसे बड़ा नगर क्षेत्र, भीड़-भाड़ वाला और प्रदूषित शहर बन गया है। सालाना औसत के हिसाब से भी देखें तो दिल्ली वायु प्रदूषण के लिहाज से विश्व का सबसे प्रदूषित शहर है, जहां सालाना औसत एक्यूआइ 200 से ऊपर रहता है। बरसात के बाद तापमान में गिरावट के साथ ही दिल्ली की हवा जहरीली होती चली जाती है और लगभग तीस मिलियन लोग जहरीली हवा में सांस लेने को अभिशप्त हो जाते हैं एक अनुमान के मुताबिक ऐसी हवा में एक दिन सांस लेना दिन भर में बीस सिगरेट पीने के बराबर है।
भारत के अन्य शहरों में भी पिछले दशक में वायु प्रदूषण(Air Pollution) की समस्या बढ़ी है, पर दिल्ली में यह विकराल होती चला गयी। हाल ही में विश्व स्वास्थ संगठन और बॉस्टन स्थित हेल्थ इफ़ेक्ट इंस्टीट्यूट का दुनिया के क्रमशः 1650 और 7000 शहरों पर किये गए दो अलग-अलग अध्ययन में दिल्ली में वायु प्रदूषण(Air Pollution) का स्तर सबसे ख़राब पाया गया। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय को टिप्पणी करनी पड़ी कि शहर की हालत नरक से भी ख़राब हो चुकी है। वायु प्रदूषण (Air Pollution) सूचकांक (0-500) वायु प्रदूषण के स्तर का सूचक है जिसके स्वास्थ्य पर प्रभाव के आधार पर पांच स्तरों में बांटा गया है; अच्छा (0-50), संतोषजनक (51-100), मध्यम (101-200), ख़राब (201-300), बहुत ख़राब (301-400) और खतरनाक (401 और उससे अधिक)। एक्यूआई की गणना आठ प्रदूषकों के आधार पर की जाती है, जिसमें कम से कम तीन की गणना जरूरी है, जिसमें कम से कम एक धूलकण (पार्टिकुलेट मैटर; पीएम10 या पीएम 2.5) होना चाहिए। प्राकृतिक और ग्रामीण क्षेत्रों में एक्यूआई हवा में बड़े धूलकण यानी पीएम10 और प्रदूषित क्षेत्रों और दिल्ली जैसे शहरों में हवा में सूक्ष्म धूलकण यानी पीएम 2.5 द्वारा निर्धारित होता है। हवा में पीएम 2.5 की बेतहाशा बढ़ती मात्रा दिल्ली की हवा को स्वास्थ्य की दृष्टि से जहरीला बना देती है।
वायु प्रदूषण (Air Pollution)के स्थानीय स्रोतों में गाड़ियों से निकला धुंआ और धूल, औद्योगिक उत्सर्जन, भवन-निर्माण का धूल और कचरे को खुले में जलाने से और लैंडफिल से निकला धुंआ मुख्य रूप से शामिल है। अब तक की समझ के मुताबिक, सर्दी की शुरुआत के साथ एक्यूआई में होने वाली गिरावट के मूल कारणों में शहर के अपने वायु प्रदूषण(Air Pollution) के स्रोत और स्थानीय मौसम की परिस्थितयों के अलावा पड़ोसी राज्यों मुख्य रूप से हरियाणा और पंजाब में धान की पराली जलाने से निकला धुंआ भी शामिल है। दरअसल, धान पश्चिमोत्तर राज्यों का प्राकृतिक फसल नहीं रहा है, परन्तु यह हरित क्रांति से उपजे भू-जल की सिंचाई के बेजा इस्तेमाल से किसानों में किसी भी कीमत पर पैसे कमाने के लिए उपजी प्रवृति है, जिसे सरकारों ने प्रोत्साहन भी दिया। नतीजा धान की पैदावार और किसानों की आमदनी तो बढ़ी पर भू-जल का स्तर गर्त तक चला गया। भू-जल दोहन को कम करने के लिए हरियाणा और पंजाब सरकार ने धान की खेती के समय को 2009 में कानून द्वारा नियंत्रित किया। जिसके अनुसार क्रमशः 15 और 10 जून के बाद ही धान की रोपनी शुरू हो ताकि भू-जल के इस्तेमाल और बेतहाशा हो रहे पानी के वाष्पीकरण को नियंत्रित किया जा सके। इस वजह से किसान के पास रबी की खेती के लिए खेत तैयार करने के लिए पर्याप्त समय नहीं होता। ऐसे में पराली से निजात पाने के लिए जलाने से बेहतर कोई और विकल्प नहीं दीखता। आज दिल्ली दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा शहर है और सबसे प्रदूषित शहरों में से एक है। अधिक आबादी का सीधा संबंध ज्यादा से ज्यादा सुख-सुविधा मसलन कार, घर आदि है। दिल्ली में वाहनों की संख्या अन्य सभी महानगरों के कुल वाहनों से ज्यादा है। दिल्ली की अधिक जनसंख्या मतलब एक बड़ा मध्य वर्ग, अधिक कारें, अधिक घर, सड़क, फ्लाईओवर आदि का निर्माण, मतलब हवा में अधिक धुंआ और धूलकण। ऊपर से दिल्ली की अपनी भौगोलिक स्थिति और मौसमी परिस्थितियां जो वायु प्रदूषण (Air Pollution)की सांद्रता को और बढ़ा देती है।
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के अनुसार, हर वर्ष पराली जलाने के सबसे अधिक मामलों के लिए जिम्मेदार पंजाब में 2022 में पराली जलाने की 49,922 घटनाएं, 2021 में 71,304 घटनाएं एवं 2020 में 83,002 घटनाएं हुईं थीं। हरियाणा में 2022 में पराली जलाने की 3,661 घटनाएं दर्ज की गईं, जो 2021 में 6,987 और 2020 में 4,202 ऐसी घटनाएं हुई थीं। वहीं, इस साल अभी तक केवल लगभग 2,500 पराली जलाने की घटनाएं दर्ज की गई हैं, जबकि पिछले साल इसी अवधि के दौरान ऐसे 5,000 मामले दर्ज किए गए थे।
गाड़ियों के प्रदूषण को कम करने के लिए रेड लाइट ऑन गाड़ी ऑफ कैंपेंन शनिवार को बाराखंबा चौराहे पर चलाया गया। अभियान के दूसरे दिन पर्यावरण मंत्री गोपाल राय ने लोगों को रेड लाइट होने पर गाड़ी बंद करने के फायदे बताएं। उन्होंने कहा की गाड़ियों से होने वाले प्रदूषण को लेकर लोगों में जागरूकता बढ़ रही है। अब 30 अक्टूबर को चांद की राम अखाड़ा राते लाइट पर कैंपेन चलेगा। लोगों से अपील की जाएगी कि वह इस ट्रेंड के माध्यम से अपना योगदान दे। इस अभियान का मकसद यही है कि रेड लाइट पर लोगों को गाड़ी के इंजन बंद करने की आदत पड़े। 2 नवंबर को सभी 70 विधानसभा में इसे चलाया जाएगा। 3 नवंबर को 2001 को क्लब के माध्यम से स्कूलों के बच्चों के बीच जागरूकता अभियान चलाया जाएगा। अभियान में पर्यावरण मित्र, आरडब्ल्यूए, इको क्लब और पर्यावरण से संबंधित लोगों को जोड़ा जा रहा है।
प्रदूषण का खामियाजा दलितों और आदिवासियों को भुगतना पड़ता है। हालाँकि वायु प्रदूषण से संबंधित मौतों को हाशिए पर रहने वाले समुदायों के साथ सहसंबंधित करने वाला कोई सटीक शोध नहीं है, लेकिन डेटा ऐसे शोध की आवश्यकता को रेखांकित करता है। प्रदूषण सभी पर समान रूप से प्रभाव नहीं डालता। यह विभिन्न कारकों के साथ अंतर्संबंधित है। प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के अध्ययन के लिए एक अंतर्विरोधी परिप्रेक्ष्य की आवश्यकता है, विशेष रूप से हमारे जैसे विविधतापूर्ण देश में।
वायु प्रदूषण से संबंधित मौतों की एक बड़ी संख्या वंचित समूहों में होती है। अमेरिकन लंग एसोसिएशन द्वारा "वायु प्रदूषण (Air Pollution) के प्रभाव में असमानताएं शीर्षक से प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार, वर्ग पूर्वाग्रह, आवास बाजार की गतिशीलता और भूमि की लागत के कारण कुछ समूहों को प्रदूषण के गंभीर जोखिम का सामना करना पड़ सकता है। अध्ययन में कहा गया है, "सबसे पहले, प्रदूषण स्रोत वंचित समुदायों के पास मिलते हैं, जिससे हानिकारक प्रदूषकों का जोखिम बढ़ जाता है। उदाहरण के लिए, ईंट भट्टे हरियाणा राज्य में एक प्रमुख उद्योग बन गए हैं, झज्जर शहर को अपने ईंट उत्पादन के लिए पहचान मिल रही है। अशोक विश्वविद्यालय में पर्यावरण अध्ययन विभाग के प्रोफेसर मुकुल शर्मा ने इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में प्रकाशित अपने 2023 के लेख में ईंट भट्ठा श्रमिकों की स्थिति पर चर्चा की। उन्होंने कहा, "झज्जर में ईंट मजदूर मुख्य रूप से झज्जर और हरियाणा के अन्य जिलों के चमार, धानुक, वाल्मिकी, दागी, देहा, गागरा, सांसी, खटीक, पासी, ओड और मेघवाल अनुसूचित जाति के दलित हैं।
दलित मजदूर भी काम के लिए पंजाब, बिहार और उत्तर प्रदेश से पलायन कर रहे हैं।" उन्होंने आगे कहा, "इनमें से अधिकांश भट्ठे अनौपचारिक क्षेत्र के भीतर अनियमित तरीके से संचालित होते हैं, जो प्रवासी मजदूरों को रोजगार देते हैं। ठेकेदारों, बंधन, अग्रिम भुगतान, ऋण और चक्रवृद्धि ब्याज की प्रणालियाँ यहाँ प्रचलित हैं। इस क्षेत्र में श्रम शोषण और मानवाधिकारों का उल्लंघन जारी है। इसके साथ ही, उदारीकरण के बाद इस क्षेत्र की वृद्धि ने दलित मजदूरों को तापमान, गर्मी, उत्सर्जन और जलवायु प्रभावों के प्रति अधिक संवेदनशील बना दिया है।"
अध्ययन में श्रमिकों पर जीवाश्म ईंधन के प्रभाव पर प्रकाश डाला गया है, जिसमें कहा गया है, "ईंट भट्टों में कोयले और अन्य बायोमास ईंधन के उपयोग से ब्लैक कार्बन, सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन के ऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड सहित पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) का उत्सर्जन होता है।" इन उत्सर्जनों का स्वास्थ्य, जलवायु और वनस्पति पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। हाल के दिनों में, उच्च लागत और उच्च लागत के कारण ईंट भट्टों में उच्च राख, उच्च सल्फर कोयला, औद्योगिक अपशिष्ट और ढीले बायोमास ईंधन का तेजी से उपयोग किया जा रहा है। अच्छी गुणवत्ता वाले बिटुमिनस कोयले की कमी, जिससे वायु उत्सर्जन की नई चुनौतियाँ पैदा हो रही हैं। हमारे साक्षात्कारों में, मजदूरों ने लगातार श्वसन समस्याओं की सूचना दी, जिसके परिणामस्वरूप अक्सर ब्रोंकाइटिस, निमोनिया, अस्थमा, फुफ्फुसीय विकार और चिकित्सा सुविधाओं तक पहुंच की कमी जैसी गंभीर बीमारियाँ होती हैं।"
दूसरे, कुछ समूहों की निम्न सामाजिक स्थिति उन्हें उनके नुकसान से संबंधित कारकों के कारण स्वास्थ्य संबंधी खतरों के प्रति अधिक संवेदनशील बनाती है। ऑक्सफैम की 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, देश में स्वास्थ्य सेवा की पहुंच असमान बनी हुई है। रिपोर्ट इस बात पर प्रकाश डालती है, "निजी बुनियादी ढांचा अब भारत के सभी स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे का लगभग 62% हिस्सा है, जिससे इन समुदायों के प्रति इसकी प्रतिक्रिया का आकलन करना महत्वपूर्ण हो गया है। केवल 4% आदिवासी और 15% दलित निजी स्वास्थ्य सुविधाओं का उपयोग करते हैं। 75वें के अनुसार एनएसएसओ के अनुसार, निजी सुविधाओं में रोगी की देखभाल के लिए अपनी जेब से खर्च सार्वजनिक सुविधाओं की तुलना में 524% अधिक है। यह वहन करने योग्य नहीं है, यह देखते हुए कि 45.9% आदिवासी और 26.6% दलित सबसे कम संपत्ति वर्ग में हैं।"
अध्ययन इन समुदायों द्वारा सामना किए जाने वाले प्रत्यक्ष भेदभाव को भी संबोधित करता है, जिसमें कहा गया है, "एक अध्ययन में पाया गया कि सर्वेक्षण में शामिल 94% दलित बच्चों को शारीरिक संपर्क (स्वास्थ्य देखभाल तक पहुँच के दौरान सहानुभूतिपूर्ण स्पर्श प्राप्त करना), दवाओं के वितरण (91%) के रूप में भेदभाव का सामना करना पड़ता है" और पैथोलॉजिकल परीक्षण (87%) का संचालन। इसके अलावा, 81% दलित बच्चों को अन्य बच्चों जितना समय नहीं दिया गया।"
तीसरा सामाजिक-आर्थिक स्थिति वायु प्रदूषण से अधिक नुकसान से जुड़ी हुई प्रतीत होती है, जैसा कि कई बड़े अध्ययनों से संकेत मिलता है। 2011 की सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना के अनुसार, "भारत में ग्रामीण परिवारों में लगभग 79% आदिवासी परिवार और 73% दलित परिवार सबसे अधिक वंचित थे।" 'नौ भारतीय राज्यों में सामाजिक नुकसान, आर्थिक असमानता और जीवन प्रत्याशा' शीर्षक से एक अध्ययन से पता चलता है कि "आदिवासियों, दलितों और मुसलमानों की जीवन प्रत्याशा उच्च जाति के हिंदुओं की तुलना में कम है। आदिवासी जीवन प्रत्याशा 4 वर्ष से अधिक कम है, दलित जीवन प्रत्याशा 3 वर्ष से अधिक कम है, और मुस्लिम जीवन प्रत्याशा लगभग 1 वर्ष कम है। आर्थिक स्थिति इन असमानताओं में से आधे से भी कम की व्याख्या करती है।"
प्रदूषित वायु को लेकर सावधान रहने से इन समस्याओं को खुद से दूर रखा जा सकता है। इन समस्याओं के लक्षण शरीर पर दिखाई देने लग जाते हैं। सांस लेने में तकलीफ, गले में और सीने में दर्द आदि दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है। वायु प्रदूषण (Air Pollution)श्वांस से संबंधित रोग अधिक होते हैं। यानी रेस्पॉरेट्री डिजीज अधिक होती हैं। इनमें गले से संबंधित रोग, फेफड़ों से संबंधित बीमारियां और लंग्स कैसर आदि अधिक होते हैं। साथ वायु प्रदूषण(Air Pollution) से लेड पॉइजिंग जैसी त्वचा संबंधी बीमारियां भी होती हैं। इन बीमारियों के कारण पेशंट की जान पर अक्सर जोखिम बन जाता है।
कुशाग्र राजेंद्र द्वारा लिखित उक्त लेखा एबीपी न्यूज़ द्वारा सबसे पहले प्रकाशित किया जा चुका है।
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