मध्य प्रदेश हाईकोर्ट.
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मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने सरकार से पूछा- "सभी जातियों के गरीबों को EWS आरक्षण क्यों नहीं?"

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने सरकार की EWS नीति पर नाराजगी जताई और सरकार से पूछा कि वह ऐसी नीति कैसे जारी कर सकती है, जो संविधान के अनुच्छेद 15(6) और 16(6) के प्रावधानों के विपरीत है। अदालत ने इस नीति में जातिगत भेदभाव के स्पष्ट संकेत पाए और सरकार से 30 दिनों के भीतर इस पर स्पष्टीकरण देने का निर्देश दिया।
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भोपाल। मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की जबलपुर बेंच ने राज्य सरकार की आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) आरक्षण नीति पर सवाल उठाया है। अदालत ने पूछा कि यदि गरीब सभी जातियों और वर्गों में होते हैं, तो EWS आरक्षण का लाभ केवल कुछ विशेष जातियों तक ही सीमित क्यों किया गया है? यह सवाल उस जनहित याचिका (PIL) के दौरान उठा, जिसमें सरकार की 2 जुलाई 2019 की नीति को संविधान के अनुच्छेद 14, 15(6), और 16(6) के प्रावधानों के विरुद्ध बताया गया है।

मध्य प्रदेश सरकार की ईडब्ल्यूएस (EWS) आरक्षण नीति के तहत केवल उच्च जातियों के गरीबों को आरक्षण का लाभ दिया जा रहा है। यह नीति 2 जुलाई 2019 को लागू की गई थी, जिसमें अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC), अनुसूचित जाति (SC), और अनुसूचित जनजाति (ST) को इस आरक्षण के दायरे से बाहर रखा गया। जनहित याचिका में इसे असंवैधानिक बताया गया है, और इसे चुनौती देते हुए दलील दी गई कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 15(6) और 16(6) के अनुसार, EWS का लाभ सभी वर्गों के गरीबों को मिलना चाहिए, चाहे वे किसी भी जाति से हों।

याचिका एडवोकेट यूनियन फॉर डेमोक्रेसी एंड सोशल जस्टिस की ओर से दायर की गई है। जबलपुर हाईकोर्ट के अधिवक्ता रामेश्वर सिंह ठाकुर और विनायक प्रसाद शाह इसका नेतृत्व कर रहे हैं। उन्होंने कोर्ट को बताया कि सरकार की यह नीति संविधान के मूल सिद्धांतों के खिलाफ जाती है, क्योंकि यह गरीबों के बीच जाति के आधार पर भेदभाव करती है।

याचिकाकर्ताओं की दलील

याचिकाकर्ता के वकीलों ने जस्टिस संजीव कुमार सचदेवा और जस्टिस विनय सराफ की खंडपीठ के समक्ष तर्क दिया कि मध्य प्रदेश सरकार की EWS नीति संविधान के अनुच्छेद 14, 15(6), और 16(6) का उल्लंघन करती है। उन्होंने बताया कि यह नीति गरीबों के बीच जातिगत भेदभाव को बढ़ावा देती है, जो कि संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार का सीधा उल्लंघन है।

इसके अलावा, EWS प्रमाणपत्र के लिए लागू फॉर्मेट में जाति का उल्लेख अनिवार्य किया गया है, जो कि संविधान के मौलिक अधिकारों के खिलाफ है। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि यह नीति समानता के सिद्धांत को दरकिनार कर सिर्फ उच्च जातियों को ही फायदा पहुंचाती है, जबकि गरीब सभी वर्गों में होते हैं।

सरकार की ओर दी गई दलील

मध्य प्रदेश सरकार की ओर से प्रस्तुत वकीलों ने तर्क दिया कि EWS आरक्षण का मुद्दा पहले ही सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संवैधानिक बेंच द्वारा हल किया जा चुका है। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले में EWS आरक्षण के संबंध में कोई भेदभाव नहीं है और यह पूरी तरह वैध है।

हालांकि, याचिकाकर्ताओं ने इस दलील का खंडन करते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला 'जनहित अभियान बनाम भारत संघ' मामले से संबंधित था, जिसमें संविधान के 103वें संशोधन की वैधता पर विचार किया गया था, लेकिन याचिका में उठाए गए मुद्दों पर यह फैसला लागू नहीं होता। इस पर कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के सात जजों की पीठ द्वारा दिए गए फैसले की ओर ध्यान दिलाया, जिसमें आरक्षित वर्गों में आर्थिक आधार पर उपवर्गीकरण पर निर्णय दिया गया था।

अदालत की प्रतिक्रिया

लंबी बहस के बाद, मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने सरकार की EWS नीति पर नाराजगी जताई और सरकार से पूछा कि वह ऐसी नीति कैसे जारी कर सकती है, जो संविधान के अनुच्छेद 15(6) और 16(6) के प्रावधानों के विपरीत है। अदालत ने इस नीति में जातिगत भेदभाव के स्पष्ट संकेत पाए और सरकार से 30 दिनों के भीतर इस पर स्पष्टीकरण देने का निर्देश दिया। अदालत ने यह भी कहा कि सरकार द्वारा दायर जवाब याचिका में उठाए गए मुद्दों के संदर्भ में अप्रासंगिक है।

इस मामले में अदालत ने सरकार को फटकार लगाते हुए स्पष्ट किया कि EWS आरक्षण का लाभ सभी गरीबों तक पहुंचना चाहिए, न कि केवल उच्च जातियों तक। कोर्ट ने यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया कि मध्य प्रदेश सरकार अपनी नीति की पुनः समीक्षा करे और संविधान के प्रावधानों के अनुरूप इसे संशोधित करे। याचिकाकर्ताओं की ओर से पैरवी अधिवक्ता रामेश्वर सिंह ठाकुर, विनायक प्रसाद शाह, रामभजन लोधी, और पुष्पेंद्र कुमार शाह ने की।

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