दलित मुस्लिम और ईसाई आखिर काम तो जाति आधार पर ही करते हैं, तो उन्हें आरक्षण का लाभ क्यों नहीं मिलना चाहिए: मोहम्मद शोएब

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नई दिल्ली। पिछले कुछ दिनों से देश में आरक्षण को लेकर लगातार खबरें आ रही हैं। पहले इडब्ल्यूएस पर सुप्रीम कोर्ट के आए फैसले पर लोगों ने अपनी राय जाहिर की। अब दलित ईसाई और मुस्लिमों को आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार ने जवाब पेश किया है।

आरक्षण के लिए एनजीओ ने दायर की याचिका

सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन (CPIL) नाम के एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी। जिसके तहत यह मांग की गई थी कि धर्म परिवर्तन कर ईसाई और मुस्लिम बनने वाले दलितों को भी अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जाए और आरक्षण समेत दूसरे लाभ दिए जाएं।

जिसमें केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में तर्क दिया है कि दलित धर्म परिवर्तन कर इस्लाम और ईसाई इसलिए बन जाते हैं क्योंकि उन्हें छुआछूत का सामना नहीं करना पड़ता है। यह दोनों ही विदेशी धर्म हैं और इसमें छुआछूत नहीं होती है। इसलिए धर्म परिवर्तन कर ईसाई और मुस्लिम बनने वालों को आरक्षण नहीं दिया जा सकता है।

वहीं दूसरी ओर एनजीओ ने इस पर अपनी दलील देते हुए कहा कि संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश 1950 भेदभावपूर्ण और संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लंघन है। क्योंकि अगर हिंदू धर्म से सिख और बौद्ध धर्म में परिवर्तित होने वालों को आरक्षण का लाभ मिल रहा है तो ईसाई और मुस्लिम धर्म के अनुयायियों को अनुसूचित जाति का दर्जा क्यों नहीं दिया जा सकता।

सरकार की तरफ से सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने अपने हलफनामे में कहा कि अनुसूचित जातियों के तरह जिन्हें आरक्षण दिया जा रहा है, उनकी पहचान का मकसद सामाजिक और आर्थिक पिछडेपन से परे हैं। जिन जातियों की पहचान की गई थी अतीत में उन्हें उसके लिए छूआछूत का सामना नहीं करना पड़ा है। जबकि आंकडों के अनुसार मुस्लिम और ईसाईयों को पिछड़ेपन और उत्पीड़न का सामना नहीं करना पड़ा है।

धर्म अलग होने के बाद भी जाति आधारित काम करना पड़ता है

दलित मुस्लिम और मुस्लिम को आरक्षण के लाभ से बाहर रखे जाने के बारे में रिहाई मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष और अधिवक्ता मोहम्मद शोएब का कहना है कि साल 1950 में धारा 341 के तहत इन दो समुदायों को दलित आरक्षण की सूची से बाहर रखा गया है। लेकिन यह मतलब नहीं है कि सामजिक तौर पर इनकी स्थिति अच्छी है। वह कहते हैं कि "अगर हम इस्लाम की बात करें तो वह सब को एक सामान कहा गया है। लेकिन भारतीय परिपेक्ष्य में ऐसा नहीं है क्योंकि यह देश जाति आधार पर चलता है। इसलिए यहां मुसलमानों में भी जाति कहीं न कहीं हैं। जिसके अनुसार लोग काम धंधे भी करते हैं। आरक्षण सामाजिक आधार पर है। ऐसे में दलित मुसलमानों का भी यह आरक्षण मिलना चाहिए।"

वहीं दूसरी ओर दिल्ली हाईकोर्ट के वकील हरीश मेहता का कहना है कि, "यह केंद्र सरकार ने जो हलफनामा दिया है। वह संविधान के अनुसार तो सही है, लेकिन इसमें समय-समय पर बदलाव भी किया गया है। जिसके अनुसार सिख और बौद्धों को आरक्षण दिया जाएगा।" वह कहते हैं कि जहां तक धर्म बदलने की बात है तो जाति का कलंक उसके बाद भी नहीं जाता है। क्योंकि लोगों को लगता है कि धर्म बदलने के बाद जाति चली जाएगी। जबकि ऐसा होता नहीं है चूंकि जाति के आधार पर हिंदूओं को आरक्षण दिया जाता है। ऐसे में जो इंसान हिंदू धर्म को त्यागकर ईसाई और मुस्लिम बनता है। उसके आस-पास के इंसान तो बाद में भी उसे जाति के आधार पर ही जानते हैं। वह काम भी उसी आधार पर करता है। ऐसे में सिर्फ धर्म बदलने से जाति का कलंक नहीं चला जाता है।

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