केरल में आदिवासी एकता की नई लहर: आरक्षण और राजनीति में अनदेखी से नाराज़ हाशिए के समुदाय एकजुट, 'समान हक़' की मांग

दशकों से आरक्षण और राजनीति में अनदेखी से नाराज़ 5 वंचित समुदाय एकजुट, 'KAPUV' मोर्चे ने दी चुनाव बहिष्कार की चेतावनी
A tribal school in Nilambur (north Kerala)
A tribal school in Nilambur (north Kerala)फोटो साभार- विकिपीडिया
Published on

कल्पेट्टा: केरल में जैसे-जैसे स्थानीय निकाय और विधानसभा चुनाव करीब आ रहे हैं, राज्य में आदिवासी एकता की एक नई लहर दौड़ गई है। यह पहली बार है जब केरल के सबसे वंचित और हाशिए पर पड़े आदिवासी समुदाय अपने अधिकारों के लिए एक साथ आए हैं। वे दशकों से आरक्षण और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में हो रही अपनी अनदेखी को चुनौती दे रहे हैं।

द न्यू इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, कट्टुनायकन, आदियन, पनिया, उराली और वेट्टुकुरुमन समुदायों ने मिलकर एक मज़बूत मोर्चा बनाया है, जिसका नाम 'KAPUV ट्राइबल वेलफेयर सोसाइटी' (KAPUV) है। इस मोर्चे का एक ही मकसद है - राज्य की आरक्षण व्यवस्था और राजनीतिक प्रणाली में अपना "वाजिब हक़" हासिल करना।

'आरक्षण का लाभ हम तक नहीं पहुँचा'

सोसाइटी के कार्यकारी सदस्य, मणिकुट्टन पनियन ने इस मुद्दे पर कहा कि, "केरल की सरकारी नौकरियों में आदिवासी समुदायों के लिए सिर्फ 2% आरक्षण है। राज्य में कुल 35 आदिवासी समुदाय हैं, लेकिन दशकों से इसका फायदा सिर्फ कुछ संपन्न समूहों जैसे - कुरिचिया, मुल्लुकुरुमा, मलयाराया, उल्लादार, माविलार और करीम्बाला को ही मिला है।"

मणिकुट्टन ने आगे कहा कि जहाँ कुछ समुदायों के पास ज़मीन, शिक्षा और नौकरियाँ हैं, वहीं सबसे गरीब जनजातियाँ आज भी अभाव में फंसी हुई हैं। उन्होंने दर्द बयां करते हुए कहा, "एक पनिया या आदिया बच्चे को स्कूल पहुँचने के लिए ही पहले अपनी भूख से लड़ना पड़ता है। ज़्यादातर बच्चे 10वीं से पहले ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। और अगर हम में से कोई जैसे-तैसे कॉलेज पहुँच भी जाए, तो हमारे अवसर वे लोग छीन लेते हैं जिनके पास पहले से ही सब कुछ है।"

राजनीति में भी हिस्सेदारी नहीं

यह सोसाइटी मानती है कि यह असमानता सिर्फ शिक्षा और रोज़गार तक सीमित नहीं है, बल्कि राजनीतिक व्यवस्था में भी गहरी जड़ें जमा चुकी है। आँकड़े इस बात की गवाही देते हैं।

1967 से लेकर आज तक, LDF, UDF और NDA ने मिलकर वायनाड की दो अनुसूचित जनजाति (ST) आरक्षित विधानसभा सीटों - मननथावाडी और सुल्तान बथेरी - पर 28 उम्मीदवार उतारे हैं। इनमें से 24 उम्मीदवार, यानी 85%, सिर्फ दो ही समुदायों (कुरिचिया और कुरुमा) से थे।

मणिकुट्टन ने कड़वी सच्चाई बयां करते हुए कहा, "पिछले पाँच दशकों में किसी भी मोर्चे ने कभी किसी पनिया, उराली, आदियन या कट्टुनायकन को उम्मीदवार नहीं बनाया। केरल के इतिहास में दो आदिवासी मंत्री (सीपीएम के ओ आर केलु और कांग्रेस की पी के जयलक्ष्मी) बने, और दोनों ही कुरिचिया समुदाय से हैं। हमारी आवाज़ सुनने वाला कोई नहीं है।"

ज़मीनी हकीकत और भी निराशाजनक है। मणिकुट्टन ने कहा, "वायनाड में हम पनिया 69,116 की आबादी के साथ सबसे बड़ा आदिवासी समूह हैं, जो कुल आबादी का 45% हैं। इसके बावजूद, स्थानीय निकायों में हमारा एक भी प्रतिनिधि नहीं है। यहाँ तक कि जिस वार्ड में पनिया बस्तियों की भरमार है, वहाँ भी पार्टियाँ बाहर से कुरिचिया उम्मीदवारों को ले आती हैं।"

'अब और अदृश्य नहीं रहेंगे'

दो साल पहले गठित 'KAPUV' अब स्थानीय निकाय चुनावों से पहले वायनाड के आदिवासी इलाकों - नूलपुझा से लेकर पुलपल्ली, थिरुनेल्ली और एडवका तक - लामबंद हो रहा है। समूह ने चेतावनी दी है कि अगर मुख्यधारा की पार्टियाँ उनकी अनदेखी जारी रखती हैं, तो वे हाशिए पर पड़ी जनजातियों से स्वतंत्र उम्मीदवार मैदान में उतारेंगे।

मणिकुट्टन ने घोषणा की, "अगर राजनीतिक दल हमें दरकिनार करना जारी रखते हैं, तो हम चुनावों का बहिष्कार करेंगे। हम अब और अदृश्य बने रहने को तैयार नहीं हैं। आगामी स्थानीय निकाय चुनाव हमारा पहला कदम होगा, और हम अपने दम पर खड़े होने के लिए तैयार हैं।"

'यह एक बड़ा सामाजिक जागरण है'

विशेषज्ञ इसे केरल की आदिवासी राजनीति में एक ऐतिहासिक मोड़ के रूप में देख रहे हैं। कन्नूर विश्वविद्यालय में ग्रामीण और जनजातीय समाजशास्त्र विभाग के पूर्व प्रमुख और सहायक प्रोफेसर डॉ. हरींद्रन पी के अनुसार, आदिवासी समूहों के बीच इस असमानता की जड़ें बहुत गहरी हैं।

उन्होंने समझाया, "कुरिचिया और कुरुमा समुदाय पारंपरिक रूप से ज़मींदार थे। उनके पास बड़ी ज़मीनें थीं और वे कृषि आधारित जीवन जीते थे, जबकि पनिया और आदिया उनके लिए काम करने वाले खेतिहर मज़दूर थे। आज़ादी के बाद भी यह पदानुक्रम बना रहा। कुरिचिया ने अपनी ज़मीनें बरकरार रखीं और आर्थिक रूप से आगे बढ़ गए, जबकि अन्य भूमिहीन ही रहे।"

डॉ. हरींद्रन ने ज़ोर देकर कहा कि यह नया एकीकरण एक बड़ा सामाजिक जागरण है। "यह पहली बार है कि पनिया, आदिया और कट्टुनायकन जैसी छोटी जनजातियाँ ST कोटे के भीतर 'उप-आरक्षण' (sub-reservation) और उचित प्रतिनिधित्व की मांग के लिए एकजुट हो रही हैं। यह आंदोलन दूसरों को बाहर करने के लिए नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करने के लिए है कि जो लोग पीछे छूट गए हैं, उन्हें आखिरकार आगे बढ़ने का मौका मिले।"

आदिवासी गोत्र महासभा के राज्य समन्वयक एम गीतानंदन ने भी दीर्घकालिक विधायी कार्रवाई की मांग की। उन्होंने कहा, "एक व्यापक आरक्षण अधिनियम ही इसका एकमात्र समाधान है। इसे संसद द्वारा पारित किया जाना चाहिए ताकि प्रत्येक आदिवासी समुदाय को उसकी आबादी के हिसाब से प्रतिनिधित्व मिल सके।"

उन्होंने यह भी जोड़ा, "केरल ने आरक्षण व्यवस्था को सख्ती से लागू किया है, लेकिन यह काफी नहीं है। पनिया, आदिया और अन्य वंचित समुदायों को विशेष ध्यान और समर्थन की ज़रूरत है, जिसमें बेहतर शिक्षा और नौकरियों के लिए लक्षित प्रशिक्षण (targeted training) शामिल है।"

सालों तक सत्ता के गलियारों में 'अदृश्य' रहने के बाद, केरल के ये सबसे हाशिए पर पड़े समुदाय अब अपनी बात सुनाने के लिए कह नहीं रहे हैं - वे इसकी ज़ोरदार मांग कर रहे हैं।

A tribal school in Nilambur (north Kerala)
MP: धीरेंद्र शास्त्री की सनातन एकता पदयात्रा के विरोध में दलित-पिछड़ा समाज संगठन, कहा- यह यात्रा संविधान और सौहार्द्र के खिलाफ
A tribal school in Nilambur (north Kerala)
"ज्यादा कानून मत सिखाइए, वरना दिखा देंगे...", बेऊर जेल में पत्रकार को मिली धमकी, पत्नी ईप्सा शताक्षी ने NHRC से की शिकायत
A tribal school in Nilambur (north Kerala)
वोटर लिस्ट संशोधन से पहले अखिलेश यादव का बड़ा दांव, SIR फॉर्म में 'जाति' कॉलम जोड़ने की उठाई मांग

द मूकनायक की प्रीमियम और चुनिंदा खबरें अब द मूकनायक के न्यूज़ एप्प पर पढ़ें। Google Play Store से न्यूज़ एप्प इंस्टाल करने के लिए यहां क्लिक करें.

The Mooknayak - आवाज़ आपकी
www.themooknayak.com