आदिवासी भाषाओं के लिए 21वीं सदी की चुनौतियां

आदिवासी भाषाओं के लिए 21वीं सदी की चुनौतियां

मानव सभ्यता के विकास में, भोजन कपड़ा और मकान के लिए उसका संघर्ष जीवन पर्यंत लागू रहता है। केवल एक आदिवासी समुदाय ही है, जो भोजन कपड़ा मकान के अलावा अपने जंगल जमीन के साथ, सांस्कृतिक धरोहर और बोली भाषाओं, को संरक्षित करने के लिए के अलग से संघर्ष करता है।

एक बोली के लुप्त होने का अर्थ होता है उसके संस्कार, भोजन, कहानियां, खान-पान, कहावतें, मुहावरे, परंपरा, तीज त्यौहार, अपनी अस्मिता की पहचान, यहाँ तक की हस्तशिल्प और लोक व्यवहार का विलुप्त हो जाना। वैश्वीकरण और बाजारवाद के शक्तिशाली तत्वों के वशीभूत होकर कई आदिवासी बोलियां दिन प्रतिदिन विलुप्त होती जा रही हैं।

देश में तेजी से बोली और भाषाओं के विलुप्त होने के कई कारण हैं। इसमें आर्थिक सुधार, नौकरी के लिए परंपरागत भाषा का कम प्रयोग, वैश्वीकरण, छोटी भाषाओं के बहुमत का संकट, आदिवासी क्षेत्रों में विकास व भाषा का हस्तांतरण न हो पाना शामिल है। इन कारणों से लोग अपनी भाषाओं या बोलियों से दूर होते जा रहे हैं।

आज की भौतिकता और आधुनिकता के इस दौर में लोग अपनी मातृभाषा के विलुप्त होने के कारण अपने ही प्रदेश की संस्कृति और परंपरा को भुलने लगे हैं। आधुनिक और मशीनीकरण के इस दौर में लोग अपनी मातृभाषा के साथ पारंपरिक कृषि उपकरणों, औजारों सहित पुरातन घरेलू सामानों को भूलते जा रहे है।

बस्तर में बारूद की गंध ने पलायन, विस्थापन, प्रकृति संहार को तो आमंत्रित किया ही है, सबसे बड़ा संकट यहां की आदिवासी अस्मिता के बीज यानी बोलियों के समक्ष खड़ा हो गया है। एक तरफ बाजार का प्रवेश तो दूसरी ओर विस्थापन का दंश तो तीसरी तरफ आधुनिक शिक्षा का दबाव, देखते ही देखते कई बोलियां अतीत हो गईं, कई के व्याकरण गड़बड़ा गए और कई ने अपना मूल स्वरूप ही खो दिया।

आज भी बस्तर के हजारों आदिवासी,पुलिस कैंप यानी सुरक्षा बलों द्वारा स्थापित कालोनियों में रहते हैं। एक तो उनमें मिश्रित जनसंख्या होती है और दूसरा ऐसे आवास उनकी पुश्तैनी प्रकृति के साथ जीवन की नीति के अनुरूप होते नहीं हैं। पहले उनका भोजन बदलता है, फिर रहन-सहन और फिर बोली बदल जाती है। जो भी आदिवासी ऐसे पलायन कर कस्बों में जाते हैं, वे अपने दैनिक व्यवहार और कामकाज के लिए स्थानीय बोली अपना लेते हैं। उनके पारंपरिक नाम बदल जाते हैं, खानपान बदल जाता है।

यह एक निर्विवाद तथ्य है कि,मातृभाषा के माध्यम से अध्ययन श्रेयस्कर एवं लाभदायक होता है। इससे विद्यार्थियों की न सिर्फ़ ग्राहय क्षमता बल्कि सृजनशीलता भी बढ़ती है।अपनी भाषा में सोचना,पढ़ना एवं लिखना एक वैयक्तिक सुख है। साथ ही अपनी मातृभाषा से जुड़ना अर्थात अपने परंपरा रीति रिवाज या दूसरे शब्दों में कहें अपनी संस्कृति एवं राष्ट्र से जुड़ना है मातृभाषा के प्रति सम्मान एवं अनुराग किसी भी समुदाय के सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है। 

यही कारण हैं कि छत्तीसगढ़ शासन ने अपने स्कूली पाठ्यक्रम में क्षेत्र विशेष के आधार पर प्राथमिक स्तर की पाठ्यक्रम में स्थानीय भाषाओं को शामिल किया है, जिसमें मुख्य रूप से गोंडी, हल्बी, भतरी, कुडुख, सरगुजिया और छत्तीसगढ़ी के साथ ही उड़िया भी शामिल है।

दरअसल किसी भी समुदाय में मातृभाषा का होना उस समुदाय के इतिहास को जानने समझने का एक महत्वपूर्ण कारक माना जाता है वह इसलिए कि इससे ही सामाजिक ताना-बाना और उनकी सांस्कृतिक परंपरा के साथ अलिखित इतिहास एवं भव्य विरासत जुड़ी हुई होती हैं। अधिकतर समुदायों में किस्से, कहानियों और गीतों को कहने का सिलसिला आज भी वाचिक परंपरा के अनुसार ही होता है।

अपनी मातृभाषा को लेकर मेरा अनुभव बिल्कुल हीनता से भरा हुआ रहा हैं मैं छत्तीसगढ़ के बस्तर में जन्मी वहीं पली बढ़ी और मेरी प्रारंभिक शिक्षा भी प्रारंभिक कहा जाता है कि भारत में हर 10 किलोमीटर के दायरे में भाषा बदल जाती है मेरी मातृभाषा गोंडी है। गोंडी भाषा मध्य भारत के एक बड़े हिस्से में बोला जाता था जो आज लगभग विलुप्ति के कगार पर है। आधुनिकीकरण और वर्ग विशेष की किसी एक भाषा को लिखने की वजह से आज गोंडी भाषा विलुप्ति के कगार पर है यही कारण है कि एक बड़ा कारण छत्तीसगढ़ में क्षेत्रीय पार्टियों द्वारा क्षेत्रीय तक को प्रमुखता से उठाते हुए एक बोली को बोलने का भी कारण रहा है हिंदी और छत्तीसगढ़िया एक ऐसी भाषा है जो आदिवासियों पर उनकी मातृभाषा के ऊपर थोपा गया है यह कभी भी उनकी मातृभाषा नहीं रहे हैं भाषा को लेकर मेरा पहला अनुभव जब पढ़ाई के सिलसिले में एक दूसरे शहर गए तब मेरे लहजे द्वारा पता चल गया कि मैं बस्तर से हूं लोगों ने मुझे देखना भावना से देखना शुरू किया उनका कहना था कि आपको हिंदी नहीं आती मैंने बजाय अपनी मातृभाषा को सीखने पर ध्यान केंद्रित करने के अलावा हिंदी को सही करने के लिए कई प्रयास किए।

कभी बस्तर में अलग अलग समुदाय के आदिवासी निवासरत थे उतनी ही यहां पर उनकी बोलियां थीं, लेकिन अब गोंडी, हल्बी, भतरी जैसी चुनिंदा बोलियां ही बची हैं। हालांकि गोंडी व हल्बी ऐसी बोलियां हैं, जो कभी खत्म नहीं हो सकतीं, लेकिन बस्तर की बोलियों को संरक्षण व संवर्धन की जरूरत है। बस्तर में छत्तीसगढ़ी व हिंदी भाषाओं का प्रभाव बढ़ता रहा हैं जबकि बस्तर की हल्बी, भतरी आदि बोलियां छत्तीसगढ़ के दूसरे हिस्सों में प्रश्रय नहीं पा सकीं। इसकी वजह यह है कि सरकारों ने बस्तर की बोलियों को आगे बढ़ाने में कोई रुचि नहीं ली।बस्तर में हल्बी, गोंडी और भतरी बोलने वाली यह आखिरी पीढ़ी हैं। यहां प्रायः प्रायः सभी बोलियां विलुप्त हो गई हैं, वैसे ही वर्तमान में बोली जाने वाली धुरवी, परजी, माड़ी जैसी अन्य बोलियां भी विलुप्ति के कगार पर हैं।

कुल मिला कर देखें तो आज बस्तर के शहर-कस्बों में हल्बी और भतरी ही बची है। जबकि दुर्गम आंचलिक क्षेत्रों में गोंडी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है।

असल में बस्तर में बोलियों पर संकट का प्रारंभ हुआ, आधुनिक विकास की अवधारणा के साथ। बस्तर में बाहरी यानी नेपाली से लेकर मैथिल और बुंदेली से लेकर गुजराती तक सदियों से बसते रहे और वहां की लोक संस्कृति में ‘तर’ कर बस्तरिया बनते रहे। हां, इन लोगों ने कभी लोक जीवन में घुसपैठ या उनके इलाकों में दखल का प्रयास नहीं किया। बल्कि वन उपज और उनके स्थानीय संसाधनों को बाजार तक लाने के लिए बस्तर से बाहर के लोगों ने उनकी बोली भाषा सीखी जिससे वैश्वीकरण के चलते अधिक से अधिक प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की प्रवृत्ति ने आदिवासियों और साहूकारों के साथ सरकार के बीच टकराव उत्पन्न किया।

हिंसा-प्रतिहिंसा के बीच बस्तर के लोगों का पलायन हुआ और नए जगह बसने पर उनकी पारंपरिक बोली पहले कम होती गई और फिर गुम हुई। एक बोली के लुप्त होने का अर्थ होता है उसके सदियों पुराने संस्कार, भोजन, कहानियां, खानपान सभी का गुम हो जाना। बारूद, बंदूक से बेहाल बस्तर में आंध्र प्रदेश से सटे सुकमा जिले में दोरला जनजाति की बड़ी संख्या है। उनकी बोली है दोरली। बोली के मामले में बड़ा विचित्र है बस्तर। वहां द्रविड़ परिवार की बोलियां भी है, आर्य कुल की भी और मुंडारी भी। उनके बीच इतना विभेद है कि एक इलाके का गोंडी बोलने वाला दूसरे इलाके की गोंडी को भी समझने में दिक्कत महसूस करता है।

गोंडी भाषा की जानकर पंडरी से जब मैंने बात किया तो उन्होंने बताया कि उन्हें गोंडी किसी ने नहीं सिखाया वह उस माहौल में पली बढ़ी जहां गोंडी बोली जाती रही है लेकिन उन्होंने अच्छी शिक्षा के लिए अपने बच्चों को मातृभाषा से दूर रखा उनका कहना हैं कि जब वो बस्तर से बाहर छत्तीसगढ़ के ही किसी इलाके में जाती हैं तो उन्हें उनके बस्तरिया लहजे की वजह से हीन भावना से देखा जाता हैं और उन पर हिंदी का छत्तीसगढ़ी सही ढंग से नहीं बोलने का मज़ाक उड़ाया जाता हैं। वो कहती हैं कि आज बाहरी भाषा हम पर हावी हो रहा है जिससे हमारी मातृभाषा खत्म हो रही हैं।

बहरहाल छत्तीसगढ़ सरकार ने बस्तर में बस्तर एकेडमी आफ डांस आर्ट एंड लेंग्वेज (बादल) बादल एकेडमी के जरिए बस्तर की विभिन्न आदिवासी संस्कृतियों को एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी तक हस्तान्तरण करने का ज़िम्मा उठाया हैं बादल एकेडमी के जरिये बस्तर की संस्कृति को नई पहचान मिल रही हैं।

आदिवासी संस्कृति के केंद्र के रूप में प्रसिद्ध बस्तर के लोक नृत्य, स्थानीय बोलियां, साहित्य एवं शिल्पकला के संरक्षण और संवर्द्धन के लिए एक बेहतर शुरुआत हुई हैं। जिसका उद्देश्य उनके परंपरा, रीति रिवाज, लोकगीत, लोक नृत्य, लोक भाषा का अभिलेखीकरण किया गया जा रहा है, ताकि इन्हें आने वाली अगली पीढ़ी तक पहुंचाया जा सके।

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