जब हम महिलाएं स्कूल का नेतृत्व करने लगी तब...

जब हम महिलाएं स्कूल का नेतृत्व करने लगी तब...

मैं रायपुर के औद्योगिक इलाके के एक बस्ती से हूँ. बचपन से मैं वहीं रही हूँ. वहाँ के एक छोटे प्राइमरी स्कूल में पिछले 8 सालों से एक टीचर हूँ. मैंने 2014 में पी.पी.1 (प्री-प्राइमरी) से अपना टीचिग शुरू किया. पी.पी.1 मतलब बहुत ही छोटे बच्चों को पढ़ाना होता था. काम में बहुत मज़ा आता था, लेकिन कभी-कभी रोना भी आता था. एक समय पर मुझे टीचिंग छोडने की भी इच्छा हो गई थी. टीचिंग मेरे लिये एक नया काम था और उपर से हमारा स्कूल बाकी स्कूलों से थोड़ा अलग था. यह बस्ती के लोगों द्वारा बनाया हुआ स्कूल है. बस्ती के लोग संगठित थे और बस्ती भी उनके मज़दूर संगठन द्वारा ही बसाई गई थी. हालांकि मैं भी इसी स्कूल से पढ़कर निकली हूँ लेकिन जब मैं टीचर बनकर आई तो यहाँ का पढ़ाई का तरीका मेरे बचपन के पढ़ाई के तरीके से अलग था. 

जिस तरह से अन्य स्कूलों में पढ़ाया जाता है - एक रटंत पद्धति में जिसमें सिर्फ बच्चों को परीक्षा पास कराने के लिए एक बुक की प्रक्रिया होती है बिना सोच व समझ के साथ, हमें भी यहाँ वैसी ही पद्धति में पढ़ाया गया था. पर अब हमारे स्कूल में अलग तरह से पढ़ाया जाता है। यहाँ केवल पाठ्यपुस्तक से नहीं बच्चों के जीवन से जुड़ी व अपने आस-पास के चीजों को लेकर ही पढ़ाई की शुरआत होती है. इस प्रकिया को समझने, अपनाने व इस प्रकिया में पढ़ाने में मुझे बहुत समय लगा. बच्चों के साथ एक गहरा व अर्थपूर्ण रिश्ता भी बनाने में समय लगा. पर शुरुवाती मुश्किल के बाद बहुत सी चीजें अच्छी लगने लगी. गणित क्लास, भाषा क्लास में मजा तो आता ही था लेकिन उससे ज्यादा मजा दुनिया क्लास में आता था जब बच्चों के साथ बस्ती घुमकर बस्ती के चीजों को देखते और उनके बारे मे क्लास में बाते करते थे - चाहे वो जानवर, पेड़-पौधे, और बादल हो या फिर हर मौसम में नाले की हालत. ऐसे ही पढ़ाने में मजा आने लगा क्योंकि मुझे भी बच्चों के साथ रहकर सीखने का मौका मिला. 

लेकिन शुरु में मै अपने आप को एक ऐसे टीचर के रुप मे देखती थी जो सिर्फ बच्चों को पढ़ाने का काम करती है और जो पढ़ाकर अपने घर चली जाती है. स्कूल से बाहर मैं अपने आप को टीचर के रुप मे नहीं देखती थी. वहाँ मैं अपने आप को एक बहन, बेटी, सहेली आदि के रूप में ही देखती थी, जो सिर्फ घर मे रहकर अपना काम करे. एक सीधी-साधी शरमाने वाली, दूसरों से जुबान नहीं लड़ाने वाली, सबकी बातों को सुनने वाली, सलवार-सूट में ही रहने वाली जो हर समय दुपट्टे को ओढी रहे. एक ऐसा जो उम्र होते ही शादी कर लेगी, बहु बनकर घूँघट में रहकर अपने ही कास्ट या समुदाय के लोग से दोस्ती करके अपना जीवन बिताएगी, जिनके पास अन्य जाति या धर्म के दोस्त नहीं हो. बस सुबह उठकर घर का काम करती, दूसरो को भी काम के लिए तैयार करती, स्कूल जाती, वापस आती, फिर से घर का काम करती, स्कूल का भी काम घर में करती और दूसरे दिन क्लास की तैयारी करती - खुद के लिए कोई समय ही नहीं निकाल पाती. अगर हमें पढ़ाने के साथ-साथ खुद की भी पढ़ाई के बारे में सोचते या कुछ और भी सपना देखते हैं, तो न चाहते हुए भी हम आगे पढ़ने या खुद के ग्रोथ के बारे में नही सोच पाते क्योंकि हम घर के कामों तक ही सीमित रह जाते हैं।

घर से लेकर बाहर तक की जद्दोजहद

पर मेरे सपने व आजादी की लड़ाई मेरे घर से शुरू होती है. पहले मुझे घर से अकेले निकलना ही मना था. मैं घर में सबसे छोटी थी और मैं कभी कही बहार नहीं जाती थी. पर मेरे घर वालों को यह डर नही था कि मैं छोटी हूँ - डर यह था कि मैं एक लड़की हूँ और अगर मैं टीचिंग के अलावा कहीं और काम से बहार जाती हूँ तो लोग क्या कहेंगे? समाज क्या कहेगा? ऐसा ही बोलकर मुझे घरवाले बाहर जाने से मना करते थे. बोलते थे कि “पढ़ाने के लिए जाती हो तो वही काम करो. दूसरा काम नहीं करना है.” मगर मैंने धीरे-धीरे घर से बाहर जाने के लिए बहुत लड़ाई की, घर वालों को समझाया. तब जाकर मुझे थोड़ी आजादी मिली. मेरा आत्मविश्वास बड़ा और धीरे-धीरे मेरे घरवालों का भी मेरे प्रति सोच बदलने लगा. वे मुझ पर भरोसा करने लगे और मेरे घर से बाहर निकलने तक से मेरे पहनावे को स्वीकृति मिलती गई. 

इन सब के साथ-साथ इस स्कूल से जुडने के बाद धीरे -धीरे मेरे जीवन मे बदलाव आने लगे. जो मेरे टीचिंग व खुद के ग्रोथ के लिए बहुत मददगार साबित हुए. यह बदलाव किसी एक चीज से नहीं बल्कि बहुत सारे कारणों से हुआ .. जैसे अलग-अलग कार्यक्रम में जुड़ना चाहे वो महिला दिवस का हो या किसी चीज को लेकर विरोध-प्रदर्शन. इन सब कार्यक्रमों मे जाना, नये- नये लोगों से मिलना, तरह -तरह की बातें सुनना व जानना, फैक्ट फाईनडिग में जाना - वहाँ के संघर्ष व उन इलाकों के बारे मे जानना जैसे- बस्तर में आदिवासियों के पुलिस हिंसा के खिलाफ व अपने जंगल को बचाने का संघर्ष हो रायगढ़ में खनन के नाम पर लोगों का विस्थापन के खिलाफ आन्दोलन. ऐसे इलाकों में लोग संगठित कैसे होते हैं, कैसे वे एक संघर्ष के साथ अपना जीवन जीते हैं, उनके हर एक कदम पर खतरा रहता है - यह सब जानने व सुनने के बाद हमारी जीवन की कठिनाई हमें कम लगने लगती हैं. काम से घर से दूर जाना, रात मे कहीं रुकना, वर्कशाप, कार्यक्रम, फैक्ट-फाइंडिग या मीटिग में जाना - टीचिंग के साथ-साथ ऐसे अन्य संघर्ष व गतिविधियों में जुड़कर काम करने में एक शक्ति और साहस मिलता है. इनसे मेरा मनोबल और भी बढ़ा, जिसके कारण मैंने आगे भी यही काम करने का सोचा क्योंकि एक संगठनात्मक रूप में काम करने से जो ताकत मिलती है वह बहुत मजबूत होती है और ये मेरे टीचिंग काम को भी बहुत प्रभावित करती है. 

जैसे हर साल गर्मी के छुट्टियों में संगठन के अन्य युवा साथी व कुछ और संगठन के लोगों के साथ मिलकर हफ्तेभर का वर्कशाप भी करते हैं और साल के बीच में टीचर्स मिलकर कुछ मुद्दों पर पढ़ाई भी करते हैं- जाति, शिक्षा, लोकतंत्र - ऐसे मुद्दों पर वर्कशाप के दौरान साथ में दिन रात रहकर पढ़ते, चर्चा करते, बहस करते - इन सब से मेरी जो विचारधाराएं जो मानसिकता थी, उनमें बहुत बदलाव आया. 

यही सोच व विचारधारा अपने बच्चो में लाना चाहती हूँ। मैंअपने बच्चों को कैसी शिक्षा दे रही हूँ, उनको एक संघर्षशील व्यक्ति बनाने में मदद करने के लिए, जो अपने हक के बारे में जाने और लड़े, जो उस तरह न रहें जैसे मैं खुद पहली थी, जो किसी के सामने कुछ बोलने की हिम्मत नहीं रखते, जिनमें हमेशा एक डर सा रहता कि अगर मैं कुछ बोलूंगी तो लोग क्या कहेंगे. इसको करने के लिए मुझे खुद अपने आप में भी वो बदलाव लाना होगा - डर और झिझक मिटानी होगी, आत्मविश्वास बढ़ाना होगा, समाज के असमानता पर सवाल खड़ा करना होगा. इसीलिए मुझे लगता है कि एक टीचर होने के नाते, हम सब को एक समतामूलक समाज के संघर्ष में भी सक्रिय होना चाहिये।

स्कूल में काम करते-करते मैं यह भी समझने लगी थी कि हमारे समाज की मानसिकता बहुत रुढ़िवादी होती है - एक महिला को अलग नजरिए से देखा जाता है. उनके सोच से लेकर उनके पहनावे तक. उनके मानसिकता को उनके पहनावे से जोड़ते हैं और उनके पहनावे को उनके चरित्र के साथ जोड़ते हैं. ये तरीके होतें हैं जिनसे महिलाओं को दबाया जाता है और यह महिलाओं को समझाने का एक तरीका है कि अगर आप को इस समाज में रहना है तो आपको उसके नियम अनुसार रहना होगा. स्कूल से जुड़ने के पहले मेरी भी सोच यही थी। मैं एक लड़की हूँ तो मुझे अपने मर्यादा मे रहना चाहिए. वहीं एक ओर हम देखते हुये आ रहे हैं कि कैसे लड़कियों व महिलाओं के साथ सेक्शुअल हरासमेंट (यौन-उत्पीड़न) जैसी चीजें होती हैं चाहे वो घर हो या बाहर हो. असल में ज्यादातर तो ऐसे शोषण का शिकार हम अपने परिवारों में ही व अपने आसपास के लोगो द्वारा बनते हैं. यह बात इन बातों में भी झलकती हैं- जैसे कि जीजा साली आधी घर वाली के रिश्तों को लेकर आसानी से हंसी की चीज़ बना देना और कैसे इन बातों के सहारे पुरुषों को एक छूट मिल जाती है मजाक-मजाक में गंदे तरीको से महिलाओं को छू देना और उसको मज़ाक ही कहना. जैसे होली के त्यौहार में रंग लगाने के बहाने गलत तरीको से छूना और फिर बोलना की “बुरा न मानो होली है.” 

हिंसा की घटनाएं बच्चों के साथ स्कूल में भी होती है. हमारे बचपन में भी आस-पास में होती देखी, लेकिन हम कभी खुलकर उन चीजों को बाहर नहीं ला पाते क्योंकि हमें कहीं न कहीं यह डर रहता है कि अगर हम कुछ बोलेंगे इनके खिलाफ तो उल्टा हमारे साथ ही कुछ हो जायेगा और सबसे बड़ा डर इस बात की होती है कि अगर हम कुछ बोलते हैं तो बात हमारे इज्जत पर आती है और पूरी दुनिया महिला पर ही हावी हो जाती है. इसी बात को लेकर हम ऐसी बातों को बाहर खुलकर नही बोल पाते. समाज से भी तो यही बात आती है कि जैसे चल रहा है वैसे चलने दो. 

संघर्षशील महिलाओं से मिली हिम्मत

लेकिन जब मैं टीचर बनने के लिए इस स्कूल से जुड़ी तो मेरे सोच व विचार तो बदले ही, पर साथ ही संघर्षशील व मेहनतकश महिलाओं के बीच रहकर काम करने से मेरे अंदर की डर व चुप्पी भी टूटी. उन लोगों से मुझे ताकत मिली. अभी ऐसा जगह बना है जहां हम खुलकर अपने साथ हो रहे शोषण के बारे में बोल सकते हैं।

हम ये भी देखते हैं की महिलाओं का शोषण कई चीजों से जुड़ी होती है जिसमें धर्म का एक बड़ा भूमिका है. हमारे स्कूल के टीचरों के साथ कुछ ऐसी घटनाएं हुईं जिनसे मेरे लिए कुछ नए सवाल भी खड़े हुए: बस्ती में जब गणेश को बैठाया गया तब स्कूल के बच्चों को टीका लगाने की बात पर टीचर और बजरंग दल के लड़कों की बहस हुई. हम सभी टीचर्स महिलाएं थी. इस बात से भी लड़के नाराज थे कि युवा महिलाएं उनकी बातों को कैसे काट रही थी और धार्मिक चीजों को स्कूल में होने देने से कैसे रोक रही थी. उन्होंने स्कूल में आकर बहस करके इन सब बातों का वीडियो भी बनाया और अपने ग्रुप में भेज दिया तो पूरी बस्ती में बात फैल गई. फिर उनका हमारे साथ बैठक हुआ जिसमें कई लड़के दारू पीकर आये थे. स्कूल के पढाई से लेकर स्कूल में नॉनवेज (मासाहार) बनाने तक, व टीचर के सैलरी का पैसा कहाँ से आता है - इन सब पर सवाल उठाये गये. हमसे पूछा गया की यहाँ बाहर से लोग क्यों आते हैं और क्या-क्या बताते हैं. हमें ऐसा लग रहा था कि हम कटघरे में खड़े थे और हमें अपने काम और विचारों की सफाई देनी पढ़ रही थी. कुछ दिन बाद उन्हीं लोगों ने हमें अपने एक कार्यक्रम में बुलाया, पर हममें से कुछ लोग उनके कार्यक्रम में शामिल नहीं होना चाहते थे और कुछ को लग रहा था कि हमें चुपचाप शामिल हो जाना चाहिए क्योंकि उसमे से कुछ लड़के आसपास के ही थे और उन से बैर नहीं लेना चाहते थे. इससे हम टीचर्स के बीच आपसी मतभेद आ गये और हमारी लड़ाईयां होने लगी. पर बाद में हमें समझ आया कि ये तो गलत है. दूसरों के कारण हमारे रिश्ते क्यों खराब हो, गलत तो सामने वाला है. हमें ऐसे चीजों से लड़ने के लिए एकजुट होकर रहना होगा और यही एकजुटता हमें ताकत देगी. 

बात यह भी है कि बस्ती में अब माहौल और भी ज्यादा धार्मिक कट्टरपंथी वाला हो गया है. हमारे बस्ती के ही वरिष्ठ साथी कई बार ऐसे तत्वों के दबाव में आकर हम पर ही सवाल उठाने लगते हैं और उन्हें भी हमें टोकने का मौका मिल जाता है - चाहे वो स्कूल में हमारे काम करने के समय को लेकर हो या हमारे पहनावे या पढ़ाने के तरीकों पर। क्योंकि महिलाओं के आगे आकर काम करने से उनके पुरुष सत्ता व बस्ती में उनका मुखिया के रूप में जो सत्ता बरकरार है वो कहीं न कहीं अपने हाथ से छीनते हुए महसूस कर रहे होते हैं।

बराबरी का दर्जा नहीं

शुरू में जब बस्ती के लोगों ने स्कूल बनाया जिसमें महिला टीचर तो थे ही लेकिन मुख्य टीचर व नेतृत्व करने वाले संगठन के पुरुष मुखिया थे. अब स्कूल में सारे मुख्य काम करने वाले लोग बदल गए. महिला टीचर ही हैं जो सब काम करती हैं. अब स्कूल के बहुत से निर्णय हम महिला टीचर द्वारा ही लिए जाते हैं व स्कूल के कार्यक्रम भी हम ही आयोजित करते हैं. हम अपने शिक्षा के काम को और बढ़ाकर इस कोशिश में भी लगे हैं कि बच्चों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने में सपोर्ट करें, ताकि वहां मजदूर बनने तक ही सीमित न रह जायें. हम कुछ बच्चों को इसीलिए एक इंग्लिश मीडियम स्कूल में भेजने का सपोर्ट कर रहे हैं क्योंकि हम यह नहीं चाहते की हमेशा के लिए मजदूर के बच्चे मजदूर ही बने. लेकिन जब हमने यह सब कदम उठाएं और हम महिला टीचर नेतृत्व करने सामने आए तो लोगों का स्कूल को देखने का नजरिया बदल गया और साथ ही ज्यादा सवाल भी उठने लगे. उल्टा हमें रटन प्रणाली में वापस जाने का व पांचवी तक शिक्षा तक ही सीमित रहने का दबाव बनाया गया। बस्ती के संगठनात्मक सोच विचार जो पहले थे वो अब नहीं रहे. बस्ती में लोग स्कूल को पहले के मुकाबले अभी कोई सम्मान नहीं देता और स्कूल को मात्र कार्यक्रम के लिए इस्तेमाल किए जाने भवन के रूप में देखते है. . साथ ही टीचर्स को कोई सम्मान नहीं दिया जाता है. हमको बराबरी का दर्जा न घर में मिलता है, न बस्ती के लोगों से मिलता है और न ही संगठन के मुखिया साथियों से. 

इन सब के चलते एक बार एक राजनीतिक पार्टी के नेता व बस्ती के कुछ मुखिया ने हम टीचर्स को अपने ऑफिस में बुलाकर हमारी शिक्षा पद्धति व विचारों पर सवाल उठाने लगे. एक तरह से हमे वहां अपमानित किया. उस घटना के बाद मेरे मन में जो गुस्सा था वो एक कविता के रूप में बाहर आया:

टीचर हो बस तुम टीचर रहो 

तुम अपनी औक़ात में रहो 

तुम अपने हद में रहो 

तुम नासमझ हो तुम मुर्ख हो 

तुम संगठित नहीं हो सकते 

तुम एकजुट होकर काम नहीं कर सकते 

वो साठ और अट्ठारह के फासले 

ले रहे हैं बुलबुले जंगे काफिले 

तुम टीचर हो 9 से 4 चार काम करो वर्ना 

तुम चरित्रहीन हो तुम थूकने लायक हो 

तुम बेटी हो बहु हो बस यही रहो 

तुम फ्री में काम करो अपना श्रम का योगदान करो 

तुम टीचर हो तुम औकात में रहो 

तुम बच्चों को 1 से 100 तक गिनती रटटा करवाओ 

कमजोर बच्चे को खड़े कराओ और नासमझ व्यक्ति की रचना करो 

ताकी वो पूंजीवादी RSS बजरंग दल के समर्थन में शामिल हो 

तुम टीचर हो बस तुम टीचर ही रहो।

ऐसा लगता है कि पुरुष - या कोई भी ऐसे व्यक्ति को जिनको पारम्परिक रूप में समाज में मुखिया या लीडर का दर्ज़ा मिलता है - अपने सत्ता को बरकरार रखने के लिए वो हमें नीचा दिखाते हैं. उस दिन हमारे साथ यही हुआ. हमारे काम को काम न समझकर, हमारी सोच व हमारे द्वारा दिए जाने वाले शिक्षा पर सवाल उठाकर, हमसे यह बातें कही गयी - कि हमारे दिमाग विकसित नहीं हैं, कि महिला टीचर स्कूल नहीं चला सकती, कि हम संगठित होकर काम नहीं कर सकते, परिवार में जैसे मुखिया होता वैसे स्कूल में भी एक मुखिया का होना जरुरी है. यह बातें कहीं न कहीं ब्राह्मणवादी सोच से ही आ रही है जिसमें एक महिला को एक बेटी या एक बहु बनकर सिर्फ घर में रहना चाहिए, और यदि आपके चरित्र पर ऊँगली उठती है तो आपको चुपचाप सुनना चाहिए. 

ऐसी घटनाओं से व ऐसी बातें सुनकर हमारे काम व कक्षा में बहुत असर पड़ता है. हमारे आपसी रिश्ते भी इस से प्रभावित होती हैं- चाहे वो सहेली हो या साथी या फिर घर वालों के साथ जिन्होंने बस्तीवालों से ऐसी घटनाओं के बारे में सुना. दिन रात उन चीज़ों के बारे में सोचना, बस्ती से गुजरते हुए लडकों के तानों व गलियों का सामना करना और फिर स्कूल आना और क्लास लेना - यह आसान नहीं होता है. लोगों का ऐसा बर्ताव देखकर सावित्रीबाई के ज़माने की याद आती है कि कैसे उनको देखकर लोग गोबर फेकते थे. आज के ज़माने में भी वही सोच अभी भी बरकरार है. 

इन सबसे हमारे काम की गुणवत्ता पर भी असर पड़ता है क्योंकि न चाहते हुए भी हमारा ध्यान इन सब चीज़ों पर चला जाता है. पर फिर भी हम सब एक दूसरे से ताकत लेते हुए इन चीजों से लड़ते हुए अपने काम को जारी रखे हुए हैं. यह सब आसान ना होता अगर हम आपस में संगठित नहीं होते. साथ ही शिक्षा को लेकर जो हमारे विचार हैं वो भी हमें हमेशा ताकत देती है. सावित्री बाई को भी याद करके ताकत मिलती है. अगर हम चाहते हैं की यह समाज बदले, तो हमको ऐसी शिक्षा देने का काम जारी रखना ही होगा और समानता के लिए लड़ाई ज़ारी रखना होगा. 

एक टीचर होने के नाते में अभी यह समझ पाई हूँ की स्कूलों की शिक्षा प्रणाली ऐसी है जहाँ बच्चों को पढ़ना-लिखना तो सिखाते ही हैं, पर सोचने वाला, न्याय और समानता में विश्ववास करने वाला इंसान बनने के मौके नहीं मिलते हैं. हमारा मकसद है कि हमारे बच्चे हमारी तरह बिना सोचे समझे वाली शिक्षा प्राप्त न करें. हम चाहते हैं कि वो एक सोचने वाला, समझने वाला, मदद करने वाला इंसान बने, एक संघर्षशील व्यक्ति बनें, कि वे भी अपने अधिकारों के लिए लडें और बेझिझक होकर अपने सवालों को पूछें. आज के माहौल में हम देखते हैं कि कैसे हर छोटी सी छोटी बातों पर एक भीड़ इकठ्ठा किया जाता है, कैसे रैलियों में हम मजदूर ही शामिल होते न की नेता के बच्चे, और इन्ही भीड़ में फिर दंगो को अंजाम दिया जाता है. धर्म के नाम पर चर्च को जलाना, मुसलामानों को मार देना - कैसे ये आज हमारे देश में आम बातें हो गयी हैं. हम नहीं चाहते है कि हमारे बच्चे भी ऐसी किसी भीड़ का हिस्सा बने. जब हम छोटे थे तो हम भी रैलियों में जाते थे - वो अच्छे रैली थे, मजदूरों के हक़ की लड़ाई के रैलियां थी. हम उन रैलियों में भीड़ की तरह शामिल होते थे. आज जब हम अपने बच्चों को किसी रैली या जुलूस में लेकर जाते हैं तो हम उनको उसका अर्थ, उसका मक़सद बताते है. वो भीड़ के रूप में नहीं, विश्वास और समर्थन में जाते हैं. कभी-कभी उनसे क्लास में मुद्दों पर बातचीत करते दौरान उन्हीं से रैली का आइडिया भी आता है - वो खुद से सोच पाते हैं की किन चीज़ों के लिए आवाज़ उठाने की ज़रुरत है, किन चीज़ों के लिए लड़ना चाहिए. एक निडर और आज़ाद माहौल में जब बच्चे पढ़ते हैं तो वही बच्चे आगे चलकर एक नए और बेहतर समाज की नीव रचने में कामयाब होंगे.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति The Mooknayak उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार The Mooknayak के नहीं हैं, तथा The Mooknayak उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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