OPINION: उप-वर्गीकरण वह ‘धोखा’ है, जो असमानता की बड़ी हक़ीक़त को छुपाना चाहता है!

असमानता
असमानता
Published on

एक अगस्त के सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद, एससी-एसटी के उप-वर्गीकरण के पक्ष में राष्ट्रीय मीडिया और सवर्ण लॉबी माहौल तैयार कर रही है। दुष्प्रचार किया जा रहा है कि दलितों और आदिवासियों की कुछ जातियाँ और समूह अपने ही समाज के बाक़ी सदस्यों का हिस्सा मार रहे हैं और उन्हें बराबरी पाने से पीछे धकेल रहे हैं। यह बात जितनी आसानी से कह दी जा रही है, उतनी है नहीं। भारत में जाति-आधारित भेदभाव के पूरे इतिहास और वर्तमान को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है।

मगर मुझे तकलीफ़ दूसरों से ज़्यादा अपनों से है। कब तक हम दूसरों के विमर्श में उलझकर आपस में लड़ते रहेंगे? उप-वर्गीकरण के विषय पर वंचितों के बीच एक राय क्यों नहीं बन पा रही है? हमारे समाज के ज़्यादातर नेता चुप क्यों हैं? कब तक वे अपने ही समाज के हितों की अनदेखी इस लिए करते रहेंगे कि उनका ख़ुद का स्वार्थ सवर्ण पार्टियाँ पूरा करती रहें? क्या उन्हें नहीं मालूम कि बहुजनों के बीच के मतभेदों का फ़ायदा उठाकर, सवर्ण समाज सत्ता में बैठा हुआ है? क्या उन्हें उप-वर्गीकरण की योजना के ख़तरे नहीं दिख रहे हैं?

बाबासाहेब अंबेडकर, जयपाल सिंह मुंडा, ज्योतिबा फुले-सावित्रीबाई फुले, पेरियार और अन्य योद्धाओं की क़ुर्बानियों की वजह से जो आरक्षण हमें मिला था, उस अधिकार को छीनने की तैयारी चल रही है। क्या आज भी हम अपने सफ़ों में बंटते रहेंगे? कोई मसीहा हमारी मसीहाई के लिए नहीं आएगा, हमें ख़ुद अपनी लड़ाई लड़नी होगी। इस देश के संसाधन पर बहुजनों का अधिकार किसी से कम थोड़े ही है।

सोचिए ज़रा, जिन पुरखों ने हमारे लिए लड़ाई लड़ी, उसका लाभ हमें मिला है। डॉ. अंबेडकर की वजह से हमारे समाज से कुछ लोग कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दरवाज़े तक पहुँच पाए और कुछ सरकारी नौकरियाँ पा सके। क्या यह हमारी ज़िम्मेदारी नहीं है कि हम अगली पीढ़ियों के लिए एक बेहतर दुनिया छोड़कर जाएँ, जहां उन्हें जातिवादी गालियाँ न सुननी पड़े, उन्हें सर पर मैला ढोना न पड़े, उन्हें गिरे हुए कोयले चुनने के “जुर्म” में जेल न जाना पड़े? क्या हम आज अपने मामूली से स्वार्थ के लिए, चुप रहना पसंद करेंगे और बड़ी लड़ाइयों को भूलकर, आपस में एक-दूसरे का पैर खींचते रहेंगे?

सबसे पहले बात यह है कि हमें अफ़वाहों को समझना होगा और दूसरों के बहकावे में आकर आपस में लड़ने से गुरेज़ करना होगा। जातिवादी प्रॉपगैंडा का जवाब हमें दलील और तथ्यों से देना होगा। हमें मालूम है कि जातिवादी समाज हमारा पक्ष समझने के लिए इतनी आसानी से तैयार नहीं होगा, मगर फिर भी हमें अपनी बात शांतिपूर्ण तरीक़े से रखनी पड़ेगी। क्या डॉ. अंबेडकर को जातिवादी समाज के हाथों भेदभाव और अस्पृश्यता का सामना नहीं करना पड़ा था? क्या फुले-दंपति पर मर्दवादी ज़बान ने गालियाँ देकर उन्हें अपमानित नहीं किया था? उन्होंने तो कभी पीछे क़दम नहीं रखा था। आज हम उनके वारिस क्यों नहीं बन पा रहे हैं?

अपने विभूतियों से प्रेरणा लेकर हमें भी उप-वर्गीकरण के खेल को समझना होगा और अपने समाज के लोगों को समझाना होगा। हमें स्पष्ट बहुसंख्यक से बात करनी होगी और अपने साथ दूसरे समाज के न्यायप्रिय लोगों का भी समर्थन माँगना होगा। हमें अपना पक्ष रखना है कि उप-वर्गीकरण की आड़ में आरक्षण ख़त्म करने की बड़ी साज़िश चल रही है। सवर्ण समाज की कोशिश है कि उप-वर्गीकरण उस घोड़े की आँख पर बंधे जाने वाले ‘अँखौड़ा’ की तरह है, जिससे बहुजन समाज सिर्फ़ अपने ही समाज के भीतर कौन नौकरी पा रहा है और कौन नौकरी नहीं पा रहा, इस बारे में ही देखता रहे।

समाज में बहुजनों के आरक्षण क्यों पूरे नहीं होते हैं? एनएफएस के नाम पर दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को क्यों सताया जाता है? ग़ैर-आरक्षित सीटों पर चंद मुट्ठी भर सवर्ण जातियाँ क्यों क़ाबिज़ हैं? तथाकथित प्रतिष्ठित संस्थाओं, आईआईएम और केंद्रीय यूनिवर्सिटियों से बहुजन क्यों ग़ायब हैं? क्यों निजी संस्थान, जो देश के संसाधन का दोहन करके मुनाफ़ा कमाते हैं, उसी देश के बहुजनों को नौकरी देने में भेदभाव करते हैं? हमारे आंदोलन से ऐसे प्रश्न उठने चाहिए।

हमारे सवाल संसाधनों में हिस्सेदारी और भागीदारी के होने चाहिए। हमें अपनी आवाज़ बुलंद करनी होगी कि क्यों कॉर्पोरेट जगत में 90% से ज़्यादा ‘डायरेक्टर’ और उच्च पदों पर सिर्फ़ सवर्ण ही बैठे हुए हैं? आज जो मीडिया उप-वर्गीकरण के बहाने समता का पाठ पढ़ा रहा है, वहाँ किस जाति के लोग बैठे हुए हैं? बहुजन आंदोलन को सवाल उठाना चाहिए कि क्यों मीडिया के ज़्यादातर संपादक और पत्रकार सवर्ण जातियों से आते हैं?

जो दलित और आदिवासी समाज के सबसे निचले पायदान पर हैं, उनके अंदर “क्रीमी लेयर” तलाश करना कितनी बड़ी बेईमानी है? क्या यह सच नहीं है कि 70% दलित भूमिहीन हैं और आदिवासियों को उनके ही ज़मीनों से भगाया जा रहा है? क्या यह सच नहीं कि हर पल किसी न किसी दलित और आदिवासी महिला पर हमला होता है?

हर तरफ़ जो असमानता का पहाड़ है वह सवर्ण लॉबी को नहीं दिखता, मगर दलित और आदिवासियों में रत्ती बराबर भी ग़ैर बराबरी उन्हें परेशान कर रही है। एक देगची भात का बंटवारा दलित और आदिवासी परिवार बराबरी से कर रहा है, उस पर न्यायालय की नज़र है, मगर अनाज के गोदाम पर कौन सी जाति कुंडली मारकर बैठी हुई है, उस पर न्यायालय ख़ामोश है। क्या यह हक़ीक़त नहीं है कि न्यायालय से लेकर मंदिरों तक सिर्फ़ सवर्णों का ही क़ब्ज़ा है?

कब तक हम अन्याय और अत्याचार सहेंगे? सवाल हमें अपना रखना है कि क्यों आदिवासी अपने ही देश में समाज के सबसे निचले पायदान पर धकेल दिए गए हैं और उनके इलाक़े की लकड़ियों को कोई और काटकर बेच रहा है और आदिवासी को अपने ही जंगल से पत्ते चुनने और जानवर चराने की इजाज़त नहीं है।

सवर्ण लॉबी जो आज दलितों और आदिवासियों के बीच ग़ैर बराबरी ढूँढ रही है, उनसे कोई पूछे कि धर्म के नाम पर किसने जाति को पैदा किया? किसने अंतर-जातीय विवाह पर रोक लगाया? कौन समाज में अंधविश्वास और सांप्रदायिकता फैला रहा है? बेशक वह बहुजन नहीं है। बेशक समाज में बहुजनों के अधिकार को कुचलने वाला सवर्ण सत्ता-वर्ग है। याद रहे हमने सत्ता-वर्ग कहा और इस व्यवस्था से सवर्ण समाज के ग़रीब लोग भी परेशान हैं, जिनके साथ दुख-सुख में हम बराबर के भागीदार हैं। बहुत सारे ग़रीब सवर्ण आज शिक्षा और नौकरी के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं, और ख़ासकर उनकी महिलाओं पर तरह-तरह के भेदभाव और अत्याचार हो रहे हैं। ये भी जातिवादी समाज की चक्की में पीसे जा रहे हैं, जिनकी मुक्ति भी बहुजन मुक्ति से जुड़ी हुई है।

मगर सत्ता में बैठी जो सवर्ण लॉबी है, वह आज उप-वर्गीकरण के नाम पर “समता” की मसीहाई कर रही है। आज ज़रूरत इस बात की है कि तथ्यों के साथ सवर्ण लॉबी के प्रॉपगैंडा को ख़ारिज करें और अपनी बात हर तरफ़ पहुँचाए। मीडिया सवर्णों के हाथ में है और उनसे बहुत ज़्यादा उम्मीद करना वक़्त की बर्बादी है। क्या हमें वैकल्पिक मीडिया के माध्यम से अपनी बात पहुँचाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए? यह इतना आसान नहीं है, मगर मायूसी की चादर ओढ़ कर सो जाने से भी तो हमारे हालात और ख़राब होंगे। बौद्धिक स्तर पर काम करने की ज़रूरत है, मगर यह ख़ुद में काफ़ी नहीं है।

हमें संविधानिक, लोकतांत्रिक और शांतिपूर्ण जन-आंदोलन के बारे में सोचना होगा। उनकी मंशा उप-वर्गीकरण के नाम से हमें बाँटना है, हमारा आंदोलन अपना वाजिब हक़ पाने का होना चाहिए। हम किसी भी सवर्ण समाज के व्यक्ति के ख़िलाफ़ नहीं हैं। हम उनको भी अपना भाई और बहन समझते हैं। मगर हमें यह बात भी पसंद नहीं है कि कोई एक दस का हक़ खाए। एक को एक का ही हक़ मिलना चाहिए। बहुजन की आबादी जितनी है, उसके अनुपात में तमाम संसाधनों पर हमारा अधिकार होना चाहिए। बक़ौल बाबासाहेब अंबेडकर, हमें आनुपातिक (Proportional) और प्रभावी (Effective) प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए। औपनिवेशिक दौर में अंग्रेज़ी राज और उनके देसी एजेंटों के ख़िलाफ़ आंदोलन करने वाले बिरसा मुंडा ने भी ‘अपना देश और अपना राज’ की बात कही थी। हमें बहुजनों के लिए आरक्षण की सीमा बढ़ाने के लिए तहरीक छेड़नी चाहिए, न कि उप-वर्गीकरण के खेल में उलझ कर आपसी एकता को तोड़नी चाहिए।

मगर इसके लिए ज़रूरी है कि बहुजन एकता मज़बूत हो। यह तब ही मुमकिन हो पाएगा जब हम अपने मतभेदों पर खुलकर बात करें और सभी गिले-शिकवे समाप्त कर समानता की लड़ाई को आगे बढ़ाएँ। इस बात को सत्ता-वर्ग भली-भांति समझता है कि जब तक वह बहुजनों को बाँटते रखेगा, तब तक वे इस देश पर राज करते रहेंगे। इसलिए सवर्ण-वर्ग बहुजनों के बीच के आपसी मतभेद को बढ़ाने के लिए प्रयास करता रहा है। उप-वर्गीकरण का जो शिगोफ़ा इन दिनों छोड़ा गया है, वह इसी ‘फूट डालो, राज करो’ की नीति का हिस्सा दिखता है। सवाल यह है कि जो ऊपर बैठे लोग करना चाहते हैं, वह तो करेंगे ही, मगर क्या आज भी दलित, आदिवासी और पिछड़े अपनी एकता क़ायम नहीं कर पाएँगे? अगर आज भी हम आपस में बंटे रहे, तो वह दिन दूर नहीं जब आरक्षण भी अभिलेखागार की किसी फाइल में दबकर दफ़्न हो जाएगा।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति The Mooknayak उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार The Mooknayak के नहीं हैं, तथा The Mooknayak उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.
असमानता
OPINION: आदिवासी महिला किसी की बपौती नहीं, याद रखें
असमानता
Opinion: राहुल गांधी की जाति, अनुराग ठाकुर का सवाल, लेकिन राहुल का निर्जात होना ही उनकी ताकत है..
असमानता
Opinion: संविधान हत्या दिवस का रण कैसा होगा?

द मूकनायक की प्रीमियम और चुनिंदा खबरें अब द मूकनायक के न्यूज़ एप्प पर पढ़ें। Google Play Store से न्यूज़ एप्प इंस्टाल करने के लिए यहां क्लिक करें.

The Mooknayak - आवाज़ आपकी
www.themooknayak.com