आशा की किरण: लालू प्रसाद यादव की सामाजिक न्याय और वंचितों के प्रति अटूट प्रतिबद्धता

आशा की किरण: लालू प्रसाद यादव की सामाजिक न्याय और वंचितों के प्रति अटूट प्रतिबद्धता
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हम एक दौर से गुजर रहे हैं जब अक्सर राजनीतिक बयानबाजी ज्यादा और ठोस कार्रवाई कम दिखाई दे रही है तब लालू प्रसाद यादव इस देश के बहुजनों के लिए आशा और परिवर्तन की एक किरण के रूप में सामने आते हैं। यह वह दौर है जब लगातार ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद के सामने लोग घुटने टेक रहे हैं। जब हम सिस्टम के एक-एक पुर्जे को फेल होते और फिर उस पूरे सिस्टम को पूंजीवाद के हाथ में सौंपते देख रहे हैं तो हमें सामाजिक न्याय, समानता और हाशिए पर पड़े लोगों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले लोगों को भी याद करना होगा।

ब्राह्मणवादियों और मनुवादियों द्वारा सदियों से इस देश के दलित-पिछड़ों का जुबान बंद कर दिया गया था। वर्चस्ववादी जातियों के सामने बोलने तो क्या बैठने तक का अधिकार नहीं था। जब लालू प्रसाद यादव कहते हैं कि "मैं बिहार को स्वर्ग नहीं दे पाया पर स्वर दिया" तो यह कोई ऐसे ही कह दी गई राजनितिक बयानबाजी नहीं है। अपनी अटूट प्रतिबद्धता के साथ लालू प्रसाद यादव ने बिहार और पूरे देश के बहुजन राजनीतिक परिदृश्य पर एक अमिट छाप छोड़े हैं। राजनीति में अपने शुरुआती दिनों से लेकर आज तक, लालू प्रसाद यादव ने लगातार हाशिए पर पड़े लोगों के अधिकारों का समर्थन किया है और उनकी जुबान बने हैं। दलित और पिछड़ी जातियों के उत्थान के लिए लालू प्रसाद यादव का समर्पण उनके पूरे राजनीतिक जीवन का सार रहा है।

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पर इस देश का क्रूर इतिहास रहा है, जब भी कोई आवाज बहुजन आबादी के लिए उठती है तो ब्राह्मणवादी ताकतें उस आवाज को सबसे पहले दबाने की कोशिश करती हैं। उस आवाज को बदनाम करने की कोशिश किए, क्योंकि एक गरीब चरवाहा मुख्यमंत्री, रेल मंत्री यहाँ तक कि इस देश की राजनीति की दिशा और दशा निर्धारित करने वाला जो बन गया था। ब्राह्मणवादियों के सामने जिन्हें बैठने और बोलने तक का अधिकार नहीं था वह चरवाहों के लिए स्कूल खोल दिया था ताकि वो बच्चे जो गाय-भैस चराते हैं और जिन्हें स्कूल जाने का मौका नहीं मिला या जो सक्षम नहीं हैं वो भी पढाई कर सकें। ऐसे बच्चों के लिए उन्होंने स्कूल का रास्ता खोला जिनको मनुवादियों ने कभी स्कूल के द्वार तक नहीं आने दिया था। ऐसा व्यक्ति जो बहुजन का जुबान बनता है वह हमेशा  से मनुवादियों के आँख में धँसता है। इस देश का संविधान देने वाले बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर, क्रांतिकारी माता सावित्री बाई फुले और पितृसत्ता को चुनौती देने वाली वीरांगना फूलन देवी तो हमेशा मनुवादियों के आँखों की किरकिरी बने रहे हैं।

1990 में वीपी सिंह की सरकार ने जब इस देश के पिछड़ों के लिए मंडल कमीशन की एक सिफारिश को लागू करने का आह्वान किया तो इस देश की ब्राह्मणवादी ताकतों में जैसे मानों बौखलाहट सी आ गई हो। मंडल के खिलाफ उन्होंने कमंडल का यात्रा निकाला। जिसकी वजह से देश भर में कई जगह दंगे-फसाद हो रहे थे। लालू प्रसाद यादव ने मुख्यमंत्री के रूप में अपने शुरुआती कार्यकाल के दौरान ही जो फैसला लिया शायद ही कोई नेता ऐसा करने की हिम्मत कर पाता। मंडल को बाबरी मस्जिद के मलबे तले दबाने चले लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार करके बाबा साहब डॉ. भीम राव अम्बेडकर के द्वारा संविधान में दिए गए एक धर्मनिरपेक्ष राज्य को बचाने का कार्य उन्होंने किया। यह फैसला एक जबरदस्त चुनौती भरा था, क्योंकि केंद्र में वीपी सिंह की सरकार के लिए आडवाणी की पार्टी, भाजपा एक महत्वपूर्ण समर्थन आधार थी। और फिर उनका भाषण "देशहित में अगर इंसान ही नहीं रहेगा तो मदिंर में घंटी कौन बजायेगा और मस्जिद में इबादत कौन देने जायेगा? एक नेता और एक प्रधानमंत्री की जितनी जान का कीमत है उतनी ही एक आम इंसान की जान की  कीमत है। चाहे राज रहे या राज चला जाए पर हम इसपर कोई समझौता करने के लिए तैयार नहीं हैं, हम अपने राज में दंगा नहीं होने देंगे" कमंडल के खिलाफ लड़ने के लिए पिछड़ों में एक जोश भर दिया। उनके प्रयास उन लोगों के साथ गहराई से प्रतिध्वनित हो गए जो ऐतिहासिक रूप से उत्पीड़ित और उपेक्षित थे।

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दुनिया भर के तमाम तथाकथित विकसित देशों में आज तक भी सवैतनिक माहवारी अवकाश के लिए कोई भी पॉलिसी नहीं है पर वहीं पर लालू प्रसाद यादव अपने कार्यकाल के दौरान ही सवैतनिक माहवारी के अवकाश के लिए अधिसूचना जारी किये थे। महिलाओं के लिए इस तरह की सकारात्मक कार्रवाई शुरू करने वाला बिहार पहला राज्य बन गया। महिलाएं अपनी जरूरत के अनुसार अपने वरिष्ठों को सूचना भेजकर अवकाश का लाभ उठा सकती थीं। पर उस समय पूरा मीडिया जिसपर सिर्फ वर्चस्ववादी  जातियों का कब्ज़ा था मंडल कमीशन के खिलाफ आग लगाने और सवर्ण जातियों के युवाओं को भड़काने में लगी हुई थी। सवैतनिक माहवारी अवकाश जैसी प्रगतिशील फैसले को किसी मीडिया ने कवर नहीं किया।

2004 से 2009 तक यूपीए सरकार में रेल मंत्री के रूप में लालू प्रसाद यादव का कार्यकाल ऐतिहासिक उपलब्धियों से चिह्नित था। उन्होंने उन पहलुओं का नेतृत्व किया जिन्होंने रेल यात्रा को गरीबों के लिए सुलभ बनाया और रेलवे को एक लाभदायक इकाई में बदल दिया। आधुनिक बाज़ार की समझ के अनुसार रेलवे को कर्ज के जाल से बाहर निकालने के लिए नई सोच वाली प्रबंधन प्रणाली को लागू कराया और रेलवे को उस समय कर्ज से बाहर निकाला जब इसका नकदी संतुलन 259 करोड़ के निचले स्तर पर पहुँच चूका था और इसकी परिचालन लागत 98 प्रतिशत के निचले स्तर पर पहुँच गई थी। लालू प्रसाद यादव का रेल मंत्री के रूप में उनके योगदान को हमेशा याद रखा जाएगा।

यह देखना निराशाजनक है कि उल्लेखनीय उपलब्धियों के बावजूद, लालू प्रसाद यादव को अनुचित उत्पीड़न का सामना करना पड़ा। कर्नाटक के पूर्व डीजीपी और चारा घोटाले के मुख्य जांच अधिकारी एपी दुरई आईपीएस ने अपनी आत्मकथा "परस्यूट ऑफ लॉ एंड ऑर्डर" में लालू प्रसाद यादव को झूठे तरीके से फंसाने की साजिश पर प्रकाश डाला है। यह अनुचित व्यवहार न केवल न्याय के सिद्धांतों पर सवाल खड़ा करता है बल्कि न्यायिक प्रणाली में पक्षपात और उचित सबूत के बिना मनुवादी मीडिया और संघ की सांठगांठ को भी उजागर करता है।

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