
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए- मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया
मजरूह सुल्तानपुरी का लिखा ये शेर हम अक्सर सुनते हैं कुछ लोगों को पता होता है कि ये शेर किसका है और कुछ लोग जानना भी नहीं चाहते कि ये शेर किसका है लेकिन इस शेर की कुव्वत से राब्ता जरूर रखते हैं. मजरूह सुल्तानपुरी को लोग सिर्फ फिल्मी गीतकार के तौर पर ही जानते हैं और जाने भी क्यों ना... अपने फ़िल्मी सफर में उन्होंने 300 फिल्मों के लिए करीब 4000 गीत लिखे होंगे और आज भी उनके लिखे गीतों को लोगों का प्यार मिल रहा है, आज भी लोग जब उनके लिखे गीतों को सुनते हैं तो गुनगुनाएं बिना नैन रह पाते.
मजरूह सुल्तानपुरी ने फ़िल्मी गीतों के इतर बहुत सारी गजलें और शेर भी लिखे हैं. जिनमें उनका गजल संग्रह 'गजल' प्रमुख है. गालिब अवार्ड, वली अवार्ड, इकबाल अवार्ड, दादा साहेब फाल्के सम्मान और फिल्म फेयर अवार्ड प्राप्त करने वाले और अपनी जिंदगी में बेमिसाल शोहरत का जाम चखने वाले मजरूह सुल्तानपुरी का असल नाम असरार अहमद खां था. मजरूह उनका तखल्लुस (उपनाम) था और ये मशहूर हुए मजरूह सुल्तानपुरी के नाम से. इनकी पैदाइश हुई उत्तर प्रदेश के ज़िला सुल्तानपुर में पहली अक्टूबर 1919 में, इनके वालिद मोहम्मद हुसैन खान पुलिस विभाग में इंस्पेक्टर थे और मजरूह उनकी इकलौती औलाद थे. जब ये पैदा हुए तो उस वक्त देश में खिलाफत आंदोलन चल रहा था और इससे प्रभावित होकर मोहम्मद हुसैन खान ने अपने साहबजादे को अंग्रेजी शिक्षा नहीं दिलाई.
और उनका दाखिला मदरसे में करा दिया. मदरसे से फारिग होने के बाद इन्होने ने लखनऊ के तिब्बिया यूनानी कॉलेज में दाखिला ले कर हकीम की सनद हासिल की. हिक्मत कि तालीम से फारिग होकर मजरूह ने फैजाबाद के कस्बा टांडा में मतब (Clinic) खोला लेकिन उनकी हिकमत कामयाब नहीं हुई लेकिन उनको वहां की लड़की से मोहब्बत जरूर हो गयी लेकिन जब बात रुस्वाई तक पहुंची तो उनको टांडा छोड़कर सुल्तानपुर वापस आना पड़ा. तिब्बिया कॉलेज में तालीम के दौरान इनकी दिलचस्पी मौसिक़ी यानि संगीत में पैदा हुई और इन्होने लखनऊ के एक म्यूजिक कॉलेज में दाखिला भी ले लिया था लेकिन जब ये बात इनके वालिद साहब को पता चली तो वो खासे नाराज हुए और मजरूह को मौसिकी सीखने से मना कर दिया. इस तरह उनका ये शौक पूरा नहीं हो सका.
मजरूह को किताबें पढ़ने, क्रिकेट और हॉकी मैच देखने का और एक जमाने में शिकार खेलने का काफी शौक था. मुशायरों में वो बेहद कामयाब शायर थे. खनकते हुए तरन्नुम से मुशायरा लूट लेते थे. उर्दू, फारसी और अरबी कि अच्छी जानकारी रखते थे.
मजरूह ने शायरी की शुरुवात 1935 से शुरू की और अपनी पहली ग़ज़ल सुल्तानपुर के एक एक मुशायरे में पढ़ी. जिसमे उन्हें काफी नाम और शोहरत मिली. शुरुआत गीत -नुमा नज्मों से हुई. लेकिन बेहद जल्द इनका रूझान गजलों की तरफ हो गया. शुरू में इन्होने हजरत 'आसी' से कुछ गजलों पर इस्लाह ली लेकिन उन्हें हजरत की इस्लाह देने का तरीका पसंद नहीं आया और उनसे इस्लाह लेना छोड़ दिया. फिर उसके बाद किसी से इस्लाह नहीं ली. इसी वजह से इन्होने अपना सारा ध्यान शेरो -शायरी में लगाना शुरू कर दिया. ऐसे किसी मुशायरे में इनकी मुलाकात जिगर मुरादाबादी से हुई. फिर क्या था जिगर मुरादाबादी की शागिर्दगी में इन्होने खूब शोहरत और तरक्की की. मजरूह कि जहनी तरबियत में जिगर मुरादाबादी और प्रोफेसर रशीद अहमद सिद्दीकी का बड़ा हाथ रहा. प्रोफेसर रशीद ने उन्हें फारसी शायर 'बेदिल', 'फिरदौसी' को पढ़ने कि सलाह दी. किसी वजह से ये अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाखिला नहीं ले सके इसलिए प्रोफेसर रशीद ने उनको तीन साल तक अपने घर रखा.
दूसरी तरफ जिगर साहब उभरते हुए शायरों को हर तरह प्रमोट करते थे. चाहे वो खुमार बाराबंकवी, राज मुरादाबादी और शमीम जयपुरी ही क्यों ना हों सब उनके ही हाशिया बर्दारों में से थे. दूसरी तरफ जिगर साहिब उभरते हुए अच्छे शायरों को हर तरह प्रोमोट करते थे.
सब्बो सिद्दीकी इंस्टिट्यूट द्वारा संचालित एक संस्था ने 1945 में एक मुशायरा का कार्यक्रम मुंबई में रखा और इस कार्यक्रम में जिगर साहब के साथ मजरूह सुल्तानपुरी ने भी शिरकत की. उस मुशायरे में मजरूह सुल्तानपुरी ने ये गजल पढ़ी थी-
शबे- इन्तिज़ार की कश्मकश में ना पूछ कैसे सहर हुई
कभी इक चिराग बुझा दिया, कभी इक चिराग जला दिया
इस मजलिस में उस वक्त के मशहूर फिल्म डायरेक्टर ए. आर कारदार भी थे, वो उनकी शायरी से खासे प्रभावित हुए उस वक्त वो 'शाहजहाँ' नाम की फ़िल्म बना रहे थे.और मजरूह साहब के सामने उन्होंने प्रस्ताव रखा कि वो उनकी फिल्म के लिए गीत लिखे. लेकिन मजरूह सुल्तानपुरी ने साफ मना कर दिया क्योंकि फिल्मों में गीत लिखना उन दिनों अच्छा नहीं मना जाता था. इसी वजह से ये प्रस्ताव उन्होंने ठुकरा दिया.
कारदार साहब ने जिगर मुरादाबादी साहब से सिफारिश की और इस तरह से शाहजाहाँ मजरूह सुल्तानपुरी कि बतौर गीतकार पहली फिल्म बनी.
फिल्मी शायरी मजरूह के लिए जरिया-ए-इज्जत नहीं बल्कि जरिया-ए- मआश (जीविका का साधन) थी. वो अपनी फिल्मी शायरी को बहुत ज्यादा मयारी (ऊंचे दर्जे की) की भी नहीं समझते थे क्योंकि उसके जरिये उन्हें कोई अदबी फायदा भी नहीं पहुँचा था. बल्कि उनका पूरा वक्त शेर गई की रफ्तार में हाईल रहा.
और उनकी मुलाकात जाने माने संगीतकार नौशाद से करवाई गयी और नौशाद साहब ने उन्हें एक धुन सुनाई और उस धुन पर गीत लिखने को कहा...तब मजरूह ने उस धुन पर एक गाना लिखा जिसके बोल कुछ इस तरह से थे- 'गेसू बिखराये, बादल आये झूम के' और इस गाने के बोल सुनकर नौशाद काफी मुतासिर हुए और यहीं से फिल्मी सफर की शुरुआत हुई. इस फिल्म के हीरो के. एल. सहगल थे जो फिल्मों में अपनी आवाज में गाया करते थे. इस फिल्म का मजरूह का लिखा हुआ एक गीत 'जब दिल ही टूट गया हम जी के क्या करेंगे' अमर हो गया. यहीं से गीतकार और संगीतकार की एक बेहतरीन जोड़ी मिली फिल्म इंडस्ट्री को मजरूह सुल्तानपुरी और नौशाद के रूप में. और लगातार एक के बाद एक गीत लिखते रहे और सफलता कि नयी इबारत लिखते रहे. सहगल को ये गीत इतना पसंद था कि जाते जाते वो ये वसीहत कर गए कि उनके मरने पर ये गाना उनकी अर्थी के साथ बजाय जाए.
इसी साल मजरूह तरक्की पसंद तहरीक (प्रगतिशील लेखक संघ) से वाबस्ता हुए. तरक्की पसंदो ने उनकी गजलों की मुख़ालफ़त की, उस वक्त सन 45 से सन 52 तक इंडिया में फैज़ अहमद फैज़ की कोई तरक्की पसंद गजल नहीं पहुंची थी. उस वक्त मजरूह ही एक ऐसे शायर थे जिन्हे गजल दुश्मनी सहनी पड़ी.
मजरूह सुल्तानपुरी वामपंथी विचारधारा के थे और इसी विचारधारा कि वजह से इन्होने उस वक्त के मुल्क के हालत पर एक गजल लिखी जो वजीर-ए-आजम जवाहल लाल नेहरू को पसंद नहीं आयी. इसी वजह से इन्हे दो साल के लिए जेल भी जाना पड़ा. लेकिन इन्होने अपनी इस विचारधारा से समझौता नहीं किया. सरकार का कहना था कि अगर आप मुआफी मांग ले तो उन्हें रिहा कर दिया जायेगा. लेकिन उन्होंने मुआफी नहीं मांगी तो इस वजह उन्हें जेल भेज दिया गया.
मजरूह सुल्तानपुरी के जेल के दौरान उनके परिवार की माली हालात बहुत खराब हो गयी थी. उनकी मदद के लिए कई लोग आगे आये पर उन्होंने सब को मना कर दिया. इसी बीच जानेमाने बहुमुखी कलाकार राजकपूर साहब भी उनसे मिले और उन्होंने उनकी मदद करनी चाही लेकिन मजरूह सुल्तानपुरी ने उनसे भी मदद लेने से इनकार कर दिया. तब राजकपूर ने उनके सामने अपनी फ़िल्म के लिए गाने लिखने का प्रस्ताव रखा. और यह प्रस्ताव मजरूह सुल्तानपुरी ने स्वीकार कर लिया और जो गीत उन्होंने लिखा वो आज भी लोगों कि ज़ुबान पर है, और वो गीत है - "एक दिन बिक जायेगा माटी के मोल, जग में रह जायेंगे प्यारे तेरे बोल "
और इस गीत के लिखे बोल से राज कपूर काफी प्रभावित हुए और उन्होंने इस गीत को लिखने के लिए मजरूह सुल्तानपुरी को बतौर मेहनताना एक हजार रूपए दिए.
सन 50 के आखिरी में दो साल की कैद झेलकर जब मजरूह सुल्तानपुरी वापस घर आये और अपनी उन दिनों की लिखी गजलें पढ़ी तो गजल दुश्मनी और मायूसी में थोड़ी कमी आयी और उन्होंने गजल का जायजा दोबारा लेना शुरू किया. वो ग़ज़लें ये थीं...
'देख ज़िन्दाँ से परे, रेंज-चमन, जोशी बहार
रक़्स करना है तो फिर पांव की ज़ंजीर ना देख'
'बोल कुछ बोल, मुक़ैयद लबे-इज़हार सही
सरे- मिम्बर नहीं मुमकिन तो सरे-दार सही'
मजरूह ने अपनी लगभग 55 साल की फिल्मी जिंदगी में बेशुमार गाने लिखे जिनमें से ज़्यादातर मशहूर हुए. उन्होंने हमेशा ये कोशिश की कि फिल्मी नग्मों में भी वो जहाँ तक संभव हुआ साहित्यिकता को बरकरार रखा. वह पूरी तरह से प्रोफेशनल थे और बिला वजह नाज नखरे नहीं करते थे. सन 1965 में उन्हें फ़िल्म दोस्ती के गाने "चाहूंगा मैं तुझे साँझ सवेरे"... के लिए बेहतरीन गीतकार का फिल्म फेयर पुरुस्कार दिया गया. भारतीय सिनेमा जगत का सर्वोच्च सम्मान दादा साहेब फ़ाल्के पुरुस्कार इन्हे 1993 में दिया गया.
मजरूह ने फिल्म नाटक (1947), डोली (1947) और अंजुमन (1948) जैसी फिल्में कीं, लेकिन उनकी बड़ी सफलता महबूब खान की लव ट्रायंगल फिल्म, अंदाज़ (1949) के साथ आई, जहाँ उन्होंने 'हम आज कहीं दिल खो बैठे, टूटे ना दिल टूटे ना और उठाये जा उनके सितम जैसे सुपरहिट गीत लिखे. उनकी एक और फिल्म, जिसमें उनके गाने बेहद मकबूल साबित हुए, वह थी शाहिद लतीफ़ निर्देशित, दिलीप कुमार-कामिनी कौशल अभिनीत फिल्म आरज़ू (1950), फिल्म का ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल... दिलीप कुमार पर फिल्माए गए बेहतरीन गानों में से एक है.
जेल से वापस आने के बाद, अपने फिल्मी करियर को नए सिरे से शुरू करने के लिए, मजरूह ने गुरु दत्त की फिल्मों बाज़ (1953) और खास तौर से आर पार (1954) के साथ फिर से कामयाबी का स्वाद चखा. बाबूजी धीरे चलना, कभी आर कभी पार, ये लो मैं हारी पिया और सुन सुन सुन सुन ज़ालिमा जैसे सफल गीतों के साथ, मजरूह ने एक धमाके के साथ वापसी की. इसके बाद उन्हें फिर कभी संघर्ष नहीं करना पड़ा. गायिका गीता दत्त ने ये लो मैं हारी पिया... को अपने दस सर्वश्रेष्ठ गीतों में से एक के रूप में गाया, जो उन्होंने 1957 में एक साथ रखा था.
गुरुदत्त-मजरूह सुल्तानपुरी-ओ.पी नैय्यर की अगली फिल्म मिस्टर एंड मिसेज '55 (1955) के साथ ओ. पी. नैय्यर की टीम और भी बेहतर हो गई. गाने फिल्म की सफलता के कारणों में से एक हैं और देश के कोने-कोने में ठंडा हवा काली घाटा, उधर तुम हसीन हो, जाने कहां मेरा जिगर गया जी और चल दिए बंदा नवाज जैसे गाने सबकी ज़ुबान पर थे.
हालांकि मजरूह सुल्तानपुरी ने उस वक़्त के सभी शीर्ष संगीत निर्देशकों के साथ काम किया - अनिल बिस्वास, नौशाद, मदन मोहन, ओ.पी. नैय्यर, रोशन, सलिल चौधरी, चित्रगुप्त, कल्याणजी-आनंदजी और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के साथ काम किया... एस.डी. बर्मन के साथ उन्होंने कुछ उत्कृष्ट गीतों की रचना की.
एस.डी. के साथ बर्मन, पेइंग गेस्ट (1957), नौ दो ग्याराह (1957), काला पानी (1958), सोलहवां साल (1958), सुजाता (1959), बॉम्बे का बाबू (1960) और ज्वेल थीफ (1967) जैसी फिल्मों में उन्होंने साथ काम किया. उनके द्वारा लिखे गए हिट गानों की सूची बहुत लम्बी है क्योंकि इन सभी फिल्मों में उनके लेखन के लिए कुछ बेहद बारीक संगीतबद्ध गाने थे. मजरूह और एस.डी. बर्मन ने लाइट, 'छेड़-छाड़’, रोमांटिक गाने जैसे छोड दो आंचल (पेइंग गेस्ट), आंखों में क्या जी (नौ दो ग्याराह), अच्छा जी मैं हारी चलो मान जाओ ना (काला पानी) और दीवाना मस्ताना हुआ दिल (बॉम्बई का बाबू). लेकिन उन्हीं फिल्मों में मजरूह ने दिखाया कि वह चांद फिर निकला (पेइंग गेस्ट), हम बेखुदी में तुमको पुकारे (काला पानी) और साथी ना कोई मंजिल (बॉम्बई का बाबू) जैसे गंभीर गानों को वो कितनी खूबसूरती से लिख सकते हैं.
मजरूह सुल्तानपुरी और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने करीब 40 फिल्मों में साथ काम किया। लक्ष्मी-प्यारे और मजरूह टीम ने दिल्लगी (1966), पत्थर के सनम (1967), शागिर्द (1967), मेरे हमदम मेरे दोस्त (1968), धरती कहे पुकार के (1969), अभिनेत्री (1970) जैसे कुछ शानदार एल्बमों का निर्माण किया, वी. शांताराम की क्लासिक फिल्म जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली (1971), एक नज़र (1972), इम्तिहान (1974) जैसी बेहतरीन फिल्में की.
मजरूह सुल्तानपुरी के कुछ हिट गाने लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल साथ 'चाहूंगा मैं तुझे साँझ सवेरे' (दोस्ती 1964 ), ये आजकल के लड़के (दिल्लगी 1966 ), "पायल की झंकार" (मेरे लाल, 1966), "बड़े मियां दीवाने" और "दिल विल प्यार व्यार" (शगिर्द,1967) "हुई शाम उनका", "छलकाए जाम" और "चलो सजना" (मेरे हमदम मेरे दोस्त, 1968) "पत्थर के सनम", "महबूब मेरे महबूब मेरे", "तौबा ये मतवाली चल" और "बताऊँ क्या लाना" (पत्थर के सनम 1968) से. "जे हम तुम चोरी से" (धरती कहे पुकार के, 1969) "ओ घटा सांवरी" और "सा रे गा मा पा" (अभिनेत्री, 1971) में, और मुकेश के क्लासिक "तारों ना सजकी" "रूक जाना नहीं" और "रोज शाम आती थी", इम्तिहान (1974).
मशहूर निर्माता- निर्देशक नासिर हुसैन की फिल्मों को सफल बनाने में मजरूह के लिखे गीतों का खासा योगदान रहा. नासिर हुसैन के लिए सबसे पहले उनकी फिल्म 'पेइंग गेस्ट' के लिए लिखा वो गीत जो हर दिल पर छा जाने वाला सुपर हिट नगमा बना.
नासिर हुसैन के द्वारा बनाई गयी ज़्यादातर फिल्में आज भी सदाबहार गानों के लिए जानी जाती हैं उन फिल्मों में मजरूह सुल्तानपुरी के कलम का जादू साफ दिखता है. तुमसे नहीं देखा (1957), दिल देके देखो (1959), फिर वही दिल लाया हूँ (1963),तीसरी मंजिल (1966), बहारों के सपने (1967), प्यार का मौसम (1969), कारवां (1971), यादों की बारात (1973), हम किसी से कम नहीं (1977), ज़माने को दिखाना है (1981), क़यामत से क़यामत तक (1988), जो जीता वही सिकंदर (1992), अकेले हम अकेले तुम (1995). नासिर के साथ मजरूह का जुड़ाव उनकी आखिरी सांस तक रहा.
मजरूह ने नयी पीढ़ी के लिए भी इतने युवा गीत लिखना जारी रखा - नासिर हुसैन के बेटे, मंसूर खान के लिए, और उनकी बाद की फिल्मों जैसे क़यामत से कयामत तक (1988) और जो जीता वही सिकंदर (1992) में उनकी आखिरी फिल्म शाहरुख खान अभिनीत फिल्म वन टू का फोर रही जो 2001 में उनकी मौत के बाद रिलीज़ हुई थी.
मजरूह सुल्तानपुरी की अगर निजी ज़िन्दगी की तरफ़ रूख़ करें तो इनकी शरीक़-ए-हयात (पत्नी) का नाम फ़िरदौस है. इन्ही के नाम से इन्होने अपना एकलौता गजल संग्रह 'गजल' समर्पित किया है. उनकी तीन बेटियाँ 'गुल', 'नौ-बहार', और 'सबा' हैं; और दो बेटे -'इरम', 'अंदलीब'. सन 1993 में 36 साल की उम्र में इरम के अचानक दुनिया से कूच कर जाने से ये ग़म से दो चार हुए. इन्होने आख़िरी उम्र तक फिल्मों के लिए गीत लिखे, आख़िर ये उनकी मजबूरी ही थी क्योंकि उन्हें अपने परिवार को देखना था. अपने बेटे अंदलीब की फिल्म 'जानम समझा करो' को बनाने में उन्होंने हर तरह से कोशिश की. लेकिन फिल्म बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप हो गयी.
अदबी और फ़िल्मी सरगर्मीयों के सिलसिले में उन्होंने रूस, अमेरीका और खाड़ी देशों सहित दर्जनों मुल्कों के दौरे किए. बुढ़ापे में वो फेफड़े की बीमारी में मुब्तला थे. 24 मई 2000 को बंबई के लीलावती अस्पताल में वो दुनिया-ए- फ़ानी से रुखसत हो गए.
सुल्तानपुर (उत्तर प्रदेश) के नगर निगम ने दीवानी चौराहा के पास उनकी याद में एक बगीचा "मजरूह सुल्तानपुरी उद्यान" बनाया.
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