लालू प्रसाद: सम्भाव्य की साधना का राजनेता

लालू प्रसाद
लालू प्रसाद
लेख- संजीव चंदन, वरिष्ठ पत्रकार

लालू प्रसाद ठोस यथार्थ की राजनीति करते रहे हैं, यथार्थ के राजनेता रहे हैं। यानी संभावनाओं के भीतर बदलाव के राजनेता। सामाजिक यथार्थ में व्यापक परिवर्तन के नेता। उन्होंने कभी असम्भाव्य को साधने की कोशिश नहीं की। उन्हें समय के चक्र ने जो भूमिका दी है, पहले मुख्यमंत्री के रूप में और फिर एक केंद्रीय स्तर के राजनेता के रूप में, उसे एक सामाजिक दायित्व की तरह अपनी और समय की सीमाओं के भीतर उन्होंने निभायी। लालू प्रसाद एक स्टालवर्ट की तरह नहीं, एक राजनेता की तरह भारतीय राजनीति में जाने जायेंगे। बिहार की राजनीति में कर्पूरी ठाकुर और लालू प्रसाद का यही फर्क है और इसीलिए कर्पूरी ठाकुर लालू प्रसाद के आदर्श हैं।

लालू प्रसाद और उनकी वैचारिकी को समझने की दो दृष्टियां होंगी। एक वर्चस्व से बनी दृष्टि-वर्चस्व, जिसे लालू प्रसाद के समय में चुनौती मिली। यह दृष्टि उन्हें हर सम्भव खारिज करने की कोशिश करेगी, उनके सच्चे-झूठे अवांतर प्रसंगों से उनकी छवि पेश करेगी या अपनी ओर से गढ़ेगी। दूसरी, उत्पीड़ितों, हाशिये के लोगों, बहुजनों, दलितों की दृष्टि। यह दृष्टि उनका सम्यक मूल्यांकन करेगी। चिंतक और एक्टिविस्ट महेंद्र सुमन के शब्दों में ये दो दृष्टियां कुछ इस तरह व्याख्यायित हैं; 'लालू प्रसाद को सवर्ण जातियां अगले सौ साल तक माफ़ नहीं करेंगी, बहुजन जातियां उनकी सौ गलतियों को माफ़ करती रहेंगी। ऐसा इसलिए कि उन्होंने गरीबों को आवाज दी।'

मंडल आयोग के लागू होने और उसके पक्ष के वातावरण में लालू प्रसाद बिहार के मुख्यमंत्री बनते हैं और राज्य को अगले 15 सालों तक प्रत्यक्ष और परोक्ष नेतृत्व देने का मौक़ा पाते हैं। उनकी राष्ट्रीय भूमिका और उनकी पार्टी की प्रदेश में प्रमुख विपक्षी होने की भूमिका को भी जोड़ दें तो 30 सालों से इस राज्य को लालू प्रसाद का नेतृत्व हासिल है। इस नेतृत्व की एक वैचारिक पृष्ठभूमि है, जिसने एक सामाजिक व्यक्ति के रूप में भी लालू प्रसाद को गढ़ा है, उनकी वैचारिकी निर्मित की है।

1967 में बिहार में जब गैरकांग्रेसी सरकार बनी तो बिहार में पिछड़ों-दलितों के लिए सत्ता का दरवाजा खुलने का समय आ गया। एक के बाद एक कई मुख्यमंत्री, थोड़े ही अंतराल में सही, पिछड़ी और दलित जातियों से बने। इनमें बीपी मंडल और कर्पूरी ठाकुर की भूमिका ऐतिहासिक और युगांतकारी सिद्ध होती है। बीपी मंडल की मंडल आयोग के अध्यक्ष के रूप में और कर्पूरी ठाकुर की मुख्यमंत्री व राजनेता के रूप में युगांतकारी है। ये दोनों ही 67 से 70 के बीच मुख्यमंत्री बने। कर्पूरी ठाकुर 1977 में भी मुख्यमंत्री के रूप में बिहार का नेतृत्व करते हैं। इस बीच कांग्रेस को भी भोला पासवान शास्त्री और दारोगा राय के रूप में दलित-पिछड़े नेतृत्व को वरीयता देनी पड़ी।

लालू प्रसाद
“नेताजी को गोली लग गई। नेताजी नहीं रहे।” — जब मुलायम सिंह ने जानलेवा हमले में मौत को भी दे दी थी मात

इस दौर में लालू प्रसाद पटना विश्वविद्यालय के छात्र होते हैं और 1970-71 में पटना विश्वविद्यालय के छात्र-संघ के महासचिव व 1973-74 में अध्यक्ष निर्वाचित होते हैं। इस दौरान उनका राजनीतिक जुड़ाव जनता पार्टी से होता है। 74 से 77 तक जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रान्ति, कांग्रेस द्वारा आपातकाल और केंद्र में जनतापार्टी द्वारा सत्ता-परिवर्तन का दौर था। इस दौर में लालू प्रसाद सम्पूर्ण क्रान्ति आंदोलन में सक्रिय होते हैं, आपातकाल में जेल जाते हैं और जनता पार्टी से सांसद (छपरा, 1977) बनते हैं। इस तरह युवा लालू-प्रसाद जेपी और कर्पूरी ठाकुर की राजनीतिक-वैचारिकी की पाठशाला में शिक्षित होते हैं। वे आगे चलकर नेता विपक्ष, जनता पार्टी के राज्य में सबसे कद्दावर नेता कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में बिहार की राजनीति का ककहरा सीखते हैं व कर्पूरी ठाकुर के बाद उनकी विरासत नेता विपक्ष के रूप में ही संभालते हैं। इस दौर के विधानसभा में लालू प्रसाद के हस्तक्षेप देखे जाने लायक है। हंसी-हंसी में अपनी बात कहने वाले लालू प्रसाद नेता विपक्ष के रूप में गंभीर राजनीतिक बहसों की कमान संभाल लेते हैं।

लालू प्रसाद मंडल आयोग के सिफारिशों के लागू होने के दौर में मुख्यमंत्री बनते हैं। 1990 से 1995 तक, जब वे अपने पहले कार्यकाल में मुख्यमंत्री होते हैं, तब देश में तीन तरह की विचारधारा राजनीतिक उद्वेलन पैदा कर रही थी। मंडल की धारा ने एक ख़ास हचलच पैदा कर दी थी समाज में, ठहरे हुए पानी में एक बड़े पत्थर की हलचल। उसकी प्रतिक्रिया में कमंडल की धारा देश में एक साम्प्रदायिक वातावरण तैयार करने में लग गयी, जिसकी एक परिणति हुई बाबरी मस्जिद को गिराने के रूप में और साम्प्रदायिक माहौल को और विषाक्त करने के रूप में। तीसरी धारा थी, भूमण्डलीकरण के रूप में आर्थिक उदारीकरण की। लालू प्रसाद के मुख़्यमंत्री बनने के पूर्व राज्य के भागलपुर ने देश के इतिहास में सबसे लम्बे दौर तक चलने वाला दंगा झेला था, जिसके कारण राज्य का ताना-बाना भी एक चुनौतीपूर्ण माहौल से टकरा और टूट रहा था।

उस दौर में फिर भी एक वर्ग का आत्मविश्वास चरम पर था। जिस कांग्रेस ने एक के बाद एक कई ब्राह्मण और सवर्ण मुख्यमंत्री उन दिनों दिए थे, उसके ब्राह्मण नेता और तुरत-तुरत भूतपूर्व हुए मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र ने लालू प्रसाद के मुख्यमंत्री बनते ही घोषणा की थी कि यह सरकार जल्द ही गिर जायेगी, क्योंकि जनतादल ने लालू प्रसाद को मुख्यमंत्री बनाकर विपक्ष का काम आसान कर दिया है। लालू प्रसाद को इस आत्मविश्वास के बरक्स अगले कई सालों तक शासन करने की करामात करनी थी।

लालू प्रसाद जिस उपर्युक्त वैचारिक स्कूल से शिक्षा ली थी, उससे उन्होंने यथार्थ और यूटोपिया, कार्यान्वयन और लक्ष्य के संतुलन को साधना सीखा था। उनकी वैचारिकी और संकल्प का आगाज उनकी इन पंक्तियों में है:

"यह देश हिन्दू और मुसलमान दोनों का है। हमारे बाप-दादाओं की हड्डी इस देश में गड़ी है। कोई माई का लाल इस देश को हिन्दू राष्ट्र नहीं बना सकता। हम सड़कों पर आएंगे और देश को बचायेंगे।"

लालू प्रासाद के इस वैचारिक संकल्प की शिनाख्त करते हुए पूर्व राज्य सभा सांसद अली अनवर कहते हैं कि साम्प्रदायिकता के खिलाफ जोखिम उठाकर भी वे डटे रहे हैं।

इस सांप्रदायिक माहौल में लालू प्रसाद के सामने दो विकल्प थे एक तो कि राज्य को नेतृत्व देते हुए इस माहौल में ही उलझ जाना और दूसरा साम्प्रदायिकता का स्थायी समाधान देते हुए राज्य के दलितों-पिछड़ों को चेतना और आवाज देना व उन्हें संसाधनों में भागीदारी का अवसर उपलब्ध कराना। लालू प्रसाद पर आरोप है कि उन्होंने भागलपुर दंगों के आरोपियों को मुस्तैदी से सजा नहीं दिलायी। सजा दिलाना पहले किस्म का एक विकल्प था, सजा पाए ऐसे आरोपियों को समाज की साम्प्रदायिक धरती पर हीरो बनते हम सब पहले और आज भी देखते रहे हैं। लालू प्रसाद ने क़ानून को अपनी गति से काम करने को छोड़कर अपनी ऊर्जा राज्य को साम्प्रदायिकता के भूत और भय से मुक्त रखने में लगा दी। दलितों-पिछड़ों के जरिये ही साम्प्रदायिक रथ को कुछ समय के लिए ही सही, लेकिन उन्होंने रोक दिया और अपनी प्राथमिकता दलितों-पिछड़ों में साहस और संकल्प भरने के रूप में तय कर दी- यह दूसरा विकल्प था। मंडल आयोग के सिफारिश के लागू होने और लालू प्रसाद के प्रशासन ने राज्य में न एक असर भी पैदा किया। संसाधनों में भागीदारी का चेहरा धीरे-धीरे बदलने लगा। लालू प्रसाद ने यहाँ संभावनाओं के भीतर ऑपरेट कर राज्य के इतिहास में एक लकीर डालनी शुरू की।

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कर्पूरी ठाकुर ने ब्रिटिश हुकूमत से लेकर बहुजनों को सत्ता तक पहुँचाने की लड़ाई लड़ी

लालू प्रसाद के प्रत्यक्ष-परोक्ष नेतृत्व के ही दौर में राज्य में एक खास माहौल और भी था। वर्चस्वशालियों को हाशिये से चुनौती मिल रही थी, जो धीरे-धीरे जाति-संघर्ष का रूप लेने लगा था। लभूमिहार बनाम दलित का रूप। राज्य में यह खूनी संघर्ष यूं तो 1990 में दो दशक पुराना था, जिसके शुरूआती दौर में मध्य जातियों के दबंगों ने दलित-मजदूरों की हत्या की थी, लेकिन लालू प्रसाद के दौर में यह संघर्ष और तीव्र होता गया। उस समय की सम्यक व्याख्या से ही इस तीव्रता के कारण को समझा जा सकता है। लेकिन इस दौर तक संघर्ष ऊंची जाति के भूमिहार सामंतों और दलितों के बीच में हो रहा था। इसकी तीव्रता का एक कारण लालू प्रसाद के समय में हाशिये के वृत्त में आत्मविश्वास और साहस का पैदा होना भी था, अन्य कारण थे ही। मध्य जातियां अब दलितों के खिलाफ भूमिका नहीं ले रही थीं।

लालू प्रसाद ने इस दौर में यथार्थ से मुठभेड़ का अपना तरीका अपनाया। उन्होंने धीरे-धीरे प्रशासन का चेहरा बदलना शुरू किया। दलितों-बहुजनों में अपनी सरकार का एक अहसास दिया। यथार्थ और सम्भाव्य के बीच काम करने में एक अनिवार्य कला साधनी होती है, रस्सी-संतुलन। इस संतुलन में कुछ गलतियां होती हैं, हो जाती हैं. चमन को सींचने में ही कुछ पत्तियां झर भी जाती हैं। वर्चस्वशाली जमातों ने इन्हीं सूखी पत्तियों को लालू प्रसाद पर कत्ल के इल्जाम के रूप में गवाह की तरह इस्तेमाल किया और उत्पीड़ितों की एक जमात ने इन्हें अनिवार्य प्रक्रिया की तरह देखा तो कुछ ऐतिहासिक भूल के रूप में लालू प्रसाद के संसदीय भाषणों, विधान-सभा और विधान परिषद में उनके भाषणों को पढ़ते हुए उनकी वैचारिकी की एक ठोस समझ बनती है, उनके कार्यों और कार्यशैली को उस वैचारिकी के दायरे में मूल्यांकित किया जाना चाहिए। लालू प्रसाद अपने भाषणों में, अपने विचारों में साम्प्रदायिकता के खिलाफ क्रूसेडर की तरह दिखते हैं, दलितों-बहुजनों के लिए सामाजिक समता के अग्रदूत की तरह दिखते हैं और गरीबों के लिए एक सुचिंतित नेता की तरह दिखते हैं।

इस आलेख का उद्देश्य यह देखना था कि लालू प्रसाद ने एक नेता के रूप में क्या किया, यह देखना नहीं कि क्या नहीं किया। क्या नहीं किया, यानी जो जनता की, हमसब की उनसे अपेक्षाएं थीं, उसपर फिर कभी। इस वक्त तो इतना ही कि लालू प्रसाद अपने विचारों में, अपनी भूमिका में एक राजनेता हैं, बदलाव के राजनेता, बदलाव और अमन-चैन के क्रूसेडर हैं।

जन्मदिन मुबारक हो प्रिय नेता!

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