जाति या वर्ग के आधार पर अगर आर्थिक असमानता होगी तो अंततः राष्ट्र को ही क़ीमत चुकानी पड़ेगी। शब्दों से जब तक राष्ट्रवाद का खोखला नारा लगेगा प्रगति और ख़ुशहाली नहीं होगी। पिछले 14 साल के अध्ययन से पता लगा कि देश की दौलत में एससी-एसटी का हिस्सा 2% बढ़ा और ओबीसी का घटा है। यह पाया गया कि अमीरों में 89% सामान्य, 8% ओबीसी और 3% एससी-एसटी वर्ग से हैं।
बिजनेस स्टैंडर्ड ने तीन रिसर्च के आधार पर ये आंकड़े निकाले हैं। एनएसएसओ के ताजा सर्वे के मुताबिक, देश की आबादी में 41% ओबीसी, 20% एससी, 9% एसटी व 30% सामान्य वर्ग से हैं। यानी, आबादी के मुकाबले अमीरी का असंतुलन साफ नजर आता है। साल 2022 तक देश की 88.4% दौलत सामान्य जातियों के पास थी, जबकि अनुसूचित जातियों की हिस्सेदारी 2.6% ही रही।
'वर्ल्ड इनइक्वेलिटी लैब की मई 2024 में जारी 'टुवर्ड्स टैक्स जस्टिस एंड वेल्थ रीडिस्ट्रीब्यूशन' रिपोर्ट के डेटा के आधार पर यह रिसर्च की गई। इसके अनुसार, ओबीसी के 8% अरबपति हैं। एसटी वर्ग का एक भी अरबपति नहीं है। रिपोर्ट कहती है कि पिछले 14 साल के दौरान देश की संपत्ति में ओबीसी वर्ग की हिस्सेदारी 2% घटी है, जबकि, एससी-एसटी की 2% बढ़ी है। 2008 में ओबीसी का हिस्सा 10% था, जो 2022 में 8% रह गया। इसी तरह, एससी-एसटी की हिस्सेदारी 1% थी, जो 3% हो गई।
रिसर्च में शामिल रहे पेरिस स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के अनमोल सोमांची कहते हैं, 'अधिकतर नवधनाढ्य अगड़ी जातियों से आ रहे हैं। क्योंकि शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक संबंध और कर्ज की उपलब्धता सारे पहलुओं में जातियों का बहुत महत्व है। इसी के आधार पर उद्यमशीलता आती है और दौलत खड़ी होती है। आज भी कई जगह दलितों को भू-स्वामी नहीं बनने दिया जाता। जमीन न होना उनकी आर्थिक उन्नति की राह में बाधक है। इस अध्ययन में कुछ बिंदुओं पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है। हज़ारों वर्ष से कुछ जातियों के पास ही धन क्यों है ? दूसरे समाज और देशों में धन या पूंजीं चलती-फिरती रहती है लेकिन भारतीय समाज में स्थिर है। जन्म से ही जाति के कई स्थायी लाभ मिल जाते हैं।
जाति ही सबसे बड़ा कारण है, भारत की गुलामी का और इसके कारण ही आज ग़रीबी में जी रहा है । जब तक जाति रहेगी कुछ बड़ा हो जाए, असंभव। एससी की धन में भागीदारी नहीं के बराबर क्यों है? डॉ अंबेडकर ने कहा था कि जाति व्यवस्था एक मकान के जैसी है, जिसकी कई मंज़िलें तो हैं लेकिन एक से दूसरी मंज़िल पर न आ सकते हैं और न जा सकते हैं। जो जाति जिस पेशा में है या व्यापार में है आपस में ही लेन-देन करते हैं और एक दूसरे को सहयोग करते हैं। यह बड़ा कारण है जिससे एससी, एसटी और ओबीसी वर्ग के लोग व्यापार या उन क्षेत्रों में जहां धन, सम्पति और सम्मान है, वहां घुस नहीं पाते। जब तक जाति व्यवस्था है तब तक मुश्किल है कि इन वर्गों के पास धन हो सकेगा।
एक सच्ची घटना का ज़िक्र करना यहाँ पर ज़रूरी हो जाता है। एक दलित की दुकान कनाट प्लेस के पालिका बाज़ार में थी, उनसे मिलने वाले एक अधिकारी एक दिन आये और गप-सप के दौरान ख़ुद को दलित बताया और उसका परिचय करा दिया। आस-पास के पड़ोसी दुकानदार भी मौजूद थे और जब वो चले गये तो वह दलित दुकानदार रो पड़ा। उसने कहा क्या ज़रूरत थी मेरी जाति बताने की और अब मेरा व्यवसाय चौपट हो जाएगा। अभी तक मुझे ये पंजाबी समझ रहे थे और इनके साथ उठना बैठना और खाना-पीना चलता था। पैसे का लेन-देन भी चलता रहता था और सामान उधार पर मिल जाता था। अब मेरे लिये दुकान चलाना मुश्किल होगा। जिसे पीढ़ियों से सामाजिक और बौद्धिक संपदा मिली हो और दूसरों को आर्थिक क्षेत्र में प्रवेश न करने दें, तो बड़ा कठिन है घुस पाना है।
भले दलित-पिछड़े धनपति न हों, वह चलेगा क्योंकि इनको अभाव में जीने की आदत है। कोई क्रांति और विद्रोह नहीं हुआ और आगे भी होने की उम्मीद नहीं है। समाज भाग्यवादी और जातियों में बंटा है । दलित और पिछड़े भी हज़ारों जातियों में बंटे हैं । हज़ारों जातियों में बंटा समाज चंद विदेशी आक्रमणकारियों को रोक न सका। इससे देश कभी भी आर्थिक रूप से ताक़त नहीं बन पायेगा। ढिंढोरा पीटने से काम नहीं चलेगा, क्योंकि जीवन तथ्य पर चलता है। भले ही भारत विश्व में पाँचवाँ आर्थिक शक्ति हो लेकिन देखना होगा कि प्रत्ति व्यक्ति आय कितनी है। भारत में आबादी क़रीब 140 करोड़ है और मूलभूत ज़रूरत को पूरा तो करेंगे ही। कुछ तो खाएँगे और पहनेंगे ही। घर निर्माण, मोबाइल, टीवी, बाइक, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि का भी उपभोग करेंगे। जब इतनी बड़ी जनसंख्या क्रय-विक्रय करेगी तो अर्थव्यवस्था बड़ी होगी ही। इसके चलते यह कहना कि हमारी अर्थव्यवस्था विश्व में बड़ी है, यह बड़ा भ्रामक है। विकसित देशों की प्रति व्यक्ति आय की तुलना में भारत कहाँ पर है, इसको देखने से लगता है कि सदियों लग लाएगा उनके बराबर पहुँचने में। अगर सामाजिक रुकावट बराबर बना रहा तो मुश्किल है कि भारत की आर्थिक स्थिति में बड़ा परिवर्तन होगा। इस तालिका से समझ में आ जायेगा कि हम विश्व में कहाँ हैं -
अगर दलित-आदिवासी और पिछड़ों के पास धन न होगा तो वस्तुओं को कौन ख़रीदेगा? सेवा का कौन उपभोग करेगा? महँगी कार, वस्तुओं, मकान और अच्छे रहन-सहन पर व्यय की शक्ति 90% जनता पर न होगी तो कैसे भारत की अर्थ व्यवस्था बड़ी होगी और चीन और अमेरिका का मुकाबला कर पाएगी? सरकारी प्रयास से कुछ तो हो सकता है लेकिन जब तक वर्तमान सामाजिक व्यवस्था है, तब तक सवर्ण, दलित और पिछड़ों में आमीरी के अनुपात में परिवर्तन नहीं होने वाला है। मुसलमानों की स्थिति भी बहुत चिंता जनक है। तथाकथित राष्ट्रवादी कभी इस पर चर्चा नहीं करते लेकिन काम करते राष्ट्र विरोध में ही हैं।
लेखक परिचय- डॉ. उदित राज, पूर्व सांसद राष्ट्रीय चेयरमैन, असंगठित कामगार एवं कर्मचारी कांग्रेस (केकेसी) व राष्ट्रीय प्रवक्ता, कांग्रेस एवं राष्ट्रीय चेयरमैन – दलित, ओबीसी एवं मॉइनारिटीज परिसंघ (DOM परिसंघ)
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