सावित्री बाई फुले: भेदभाव व विरोध सह कर भी जलाए रखी महिला शिक्षा की मशाल

सावित्री बाई फुले
सावित्री बाई फुलेइंटरनेट

आज का स्त्रीवादी विमर्श ‘मेरी रात, मेरी सड़क’ जैसे मुद्दों पर स्त्री समानता को लेकर मुखरित हो रहा है. स्वतंत्र, सशक्त और चेतनाशील स्त्रियां बेखौफ होकर पितृसत्तात्मक समाज से मुकाबला कर रही हैं. स्त्रीवादी संघर्षों की यह यात्रा आसान नहीं रही है. वह भारी बाधाओं और कष्ट-कंटकों से लड़ती भिड़ती यहां तक पहुँची हैं. इन संघर्षों का आरंभ बिंदु वह है जब महिलाओं का शिक्षण किसी आपराधिक कृत्य सरीखा था. विधवा विवाह, बाल विवाह, सतीप्रथा जैसी जघन्य कुरीतियां समाज में अपनी जड़ें जमाएं थीं. तब इन्हीं कुप्रथाओं की खिलाफत और उसके उन्मूलन के लिए सामने आती हैं सावित्री बाई फूले. जिनकी आज जयंती है.

सावित्री बाई फूले ने अपने आरंभिक दौर में ही ब्रिटिश सुधारवादी और उन्मूलनवादी टामसन क्लार्क्सन की जीवनी पढ़ी और अपने लोकोपकारी कार्यों में उनसे काफी प्रभावित हुईं. टामसन क्लार्क्सन ने नीग्रो लोगों पर हुए दमन के विरुद्ध लड़ाई लड़ी थी और इसके लिए कानून बनाने में भी सफलता पाई थी. उस समय के भारत में स्त्रियों और अछूतों की स्थिति भी नीग्रो समुदाय से कहां कमतर थी. सावित्री बाई फूले ने महिलाओं को लेकर तमाम रूढ़ियों और जड़ताओं का हल शिक्षा में ढूंढ़ा और समाज में शिक्षा की ज्योति जलाने की अपनी यात्रा में निकल पड़ीं. लेकिन यह रास्ता बेहद दुष्कर था. क्योंकि तब पति की सेवा करने, बच्चा पैदा करने और चूल्हा-चौका करने के परे महिलाओं का कोई जीवन नहीं समझा जाता था. उनकी इच्छा, उनके सपने और मान-सम्मान के लिए न कोई जगह थी न उनका मूल्य था. इन्हीं महिलाओं को जब शिक्षित करने सावित्री बाई निकलतीं तो उन्हें रोकने के लिए उनपर गंदगी और कीचड़ फेंके जाते. इसके लिए विद्यालय जाते हुए थैले में एक और साड़ी रखना उन्होंने पसंद किया लेकिन अपने रास्ते से नहीं डिगीं.

उन्नीसवीं सदी में ब्राह्मणवाद के पाखंड का आलम यह था कि असमय हुई विधवा स्त्रियों के लिए विवाह निषेध था. लेकिन उसी समाज और परिवार के पुरुष इन स्त्रियों से हठात बलात्कार करते या बहला-फुसलाकर उनसे संबंध बनाते. इन स्थितियों में अगर गर्भ ठहर जाए तो दंड भुगतने का विधान अकेले स्त्रियों के लिए निर्मित था. ऐसी ही एक ब्राह्मण विधवा महिला काशी बाई की मदद के लिए सावित्री बाई ने साहसिक कदम उठाया. न सिर्फ उन्हें अपने घर लाकर उनका प्रसव कराया. बल्कि उनके बच्चे को गोद लेकर उसे उच्च शिक्षित किया और डॉक्टर बनाया. काशीबाई की घटना ने उन्हें 1853 में ‘बाल-हत्या प्रतिबंधक-गृह’ की स्थापना करने की प्रेरणा दी, जहाँ विधवाएँ अपने बच्चों को जन्म दे सकती थीं और यदि वो उन्हें अपने साथ रखने में समर्थ नहीं हैं तो बच्चों को इस गृह में रख कर जा सकती थीं। इस गृह की पूरी देखभाल और बच्चों का पालन पोषण सावित्रीबाई फुले किया करती थीं.

बुराइयों को तात्कालिकता में देखनेे के बजाय सावित्री बाई ने उसके जड़ पर चोट कर उसके खात्मे की दिशा में कदम बढ़ाया. विधवा महिलाओं को विद्रूप बनाने के लिए नाइयों से उनके मुंडन की कुप्रथा समाज में विद्यमान थी. सावित्री बाई नाई समाज के लोगों को यह समझाने में कामयाब रहीं कि वे विधवा स्त्रियों का मुंडन करके एक बड़ी बुराई में हिस्सेदार हो रहे हैं. नाई समुदाय के लोग उनसे प्रेरित हुए और उन्होंने इस मुंडन प्रथा के खिलाफ हड़ताल कर दिया. सामाजिक सुधार के इन्हीं कार्यों को आगे बढ़ाते हुए और महिलाओं के अधिकार, गरिमा व अन्य सामाजिक मुद्दों के बारे में जागरूकता पैदा करने के उद्देश्य से उन्होंने महिला सेवा मंडल की स्थापना की. जिसे उनके महत्वपूर्ण कार्यों में से गिना जाता है.

उस समय अधिकांश माता-पिता यह मानकर चलते थे कि लड़कियों को शिक्षा देना पाप का भागीदार होना है. तब सावित्री बाई फूले ने ऐसे मां-पिताओं के साथ लगातार बैठक की और उन्हें बेटियों को स्कूल भेजने के लिए प्रोत्साहित किया. वे कहती थीं कि शिक्षित और अनुशासित बच्चे किसी भी समाज का भविष्य होते हैं जो आगे चलकर समाज का नेतृत्व करने में अहम् भूमिका निभाते हैं. इस नाते शिक्षा, विद्यार्थियों और शिक्षकों का बहुत ही अहम् रिश्ता है और समाज निर्माण में इनका मुख्य किरदार होता है। आज स्कूलों में जो पैरेन्ट्स-टीचर मीटिंग की परंपरा है, उसकी शुरूआत यहीं से मानी जाती है.

सावित्री बाई फूले अपने आखिरी क्षणों तक पीड़ितों की सेवा को समर्पित रहीं. जब मुम्बई प्लेग के भीषण प्रकोप से ग्रसित था और बड़ी संख्या में लोगों की मृत्यू हो रही थी तब उन्होंने प्लेग रोगियों की सेवा में खुद को झोंक दिया. इसी क्रम में किसी ने उन्हें प्लेग से ग्रसित एक बच्चे के बारे में बताया, वह उस गंभीर बीमार बच्चे को पीठ पर लादकर हॉस्पिटल लेकर गयी. इस प्रक्रिया में यह महामारी उन्हें भी लग गयी और 10 मार्च 1897 को सावित्रीबाई फुले इस बीमारी के चलते निर्वाण को प्राप्त हुईं.

भारतीय स्त्री आंदोलन की यात्रा में सावित्री बाई फूले का जीवनकर्म एक अहम कड़ी है, जिसे बिना समझे-जाने स्त्रीवादी आंदोलन और सुधारों को समग्रता में देखने की दृष्टि विकसित नहीं की जा सकती. अफसोस है कि इतिहास ने उन्हें वह स्थान नहीं दिया, जिसकी वह हकदार थीं.

लेखक पल्लव आनंद , पॉलिटिकल रिसर्चर एवं स्वतंत्र पत्रकार हैं.
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