इन वजहों से कन्हैया ने उमर खालिद को दोस्त मानने से किया इंकार, क्या अब मुसलमानों के बीच घट जाएगी कन्हैया की लोकप्रियता?

कन्हैया ने उमर खालिद को दोस्त मानने से किया इंकार
कन्हैया ने उमर खालिद को दोस्त मानने से किया इंकार

"कन्हैया को जो लोग दिल्ली प्रवास से पहले यानी पटना से जानते हैं वो उनकी अवसरवादिता से भली भांति परिचित हैं। उसे जिस अवसर की तलाश थी वह अवसर दिल्ली में बैठें सवर्ण लिबरल बुद्धिजीवियों ने दिला दिया।"

लेखक- तारिक अनवर चंपारणी

सोशल मीडिया पर लगभग 50 सेकंड का एक वीडियो क्लिप बहुत वायरल हो रहा है। दरअसल यह वीडियो 11 दिसम्बर, 2021 का है जब कांग्रेस नेता कन्हैया कुमार और कदवा से कांग्रेस के दूसरी बार विधायक चुने गये डॉ. शकील अहमद खान बिहार के सिवान शहर में एक सेमिनार में शामिल होने गये थे। सेमिनार का विषय "भारत की आज़ादी का संघर्ष और मौजूदा चुनौतियाँ" था। उसी सेमिनार के दौरान सिवान के एक शिक्षक और यूट्यूबर नदीम ने कन्हैया से एक सवाल कर दिया और उस सवाल ने कन्हैया को बहुत ही असहज कर दिया।

नदीम का सवाल जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्रनेता मीरान हैदर और कन्हैया के संघर्षों के सहयोगी रहे जेएनयू के छात्र उमर ख़ालिद को लेकर था। यह दोनों छात्र अभी जेल में बंद है। कन्हैया ने तो उमर ख़ालिद को दोस्त मानने तक से इंकार कर दिया और मीरान दूसरी पार्टी का नेता है बताकर सवालों को टाल दिया। जबकि सच्चाई यही है कि 9 फ़रवरी, 2016 को जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में जो घटना घटित हुई थी उसमें उमर खालिद, कन्हैया कुमार और अनिर्बान भट्टाचार्य की गिरफ्तारी हुई थी। उसके बाद भी दर्जनों ऐसे अवसर और कार्यक्रम हैं जिसमें कन्हैया और उमर एक साथ नज़र आये। फिर भी कन्हैया ने उमर को पहचानने से क्यों इंकार कर दिया?

दरअसल कन्हैया को जो लोग दिल्ली प्रवास से पहले यानी पटना से जानते हैं वो उनकी अवसरवादिता से भली भांति परिचित हैं। उसे जिस अवसर की तलाश थी वह अवसर दिल्ली में बैठें सवर्ण लिबरल बुद्धिजीवियों ने दिलाया। ऐसे बुद्धिजीवियों को ऐसा लगा कि एक लंबे समय के बाद बिना मेहनत किए एक लीडर तैयार किया जा सकता है। इन बुद्धिजीवियों ने कन्हैया को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया और धीरे-धीरे एक्टिविस्ट कन्हैया को राजनेता बनाने की क़वायद शुरू हुई और जेएनयू में बैठे-बैठे बेगूसराय की लोकसभा सीट पर नज़र दौड़ाया गया। अब यहां से असली कन्हैया यानी वर्तमान कन्हैया का निखार शुरू हुआ और अपने संघर्ष के साथियों विशेषकर मुसलमानों को धीरे-धीरे अलग करना शुरू किया।

कन्हैया के नज़दीक रहने वालों में अक्सर लोग उमर ख़ालिद को कट्टर या देशद्रोही से थोड़ा ही कम समझते हैं। मैंने यह व्यक्तिगत रूप से भी अनुभव किया है। कन्हैया के बहुत क़रीबी और राजनीतिक मेंटर डॉ. शकील अहमद खान तो अक्सर उमर ख़ालिद को "Not Deserving" कहते हैं। 2019 लोकसभा चुनाव से पहले ही कन्हैया ने उमर ख़ालिद से दूरी बनाना शुरू कर दिया था। यहां तीन घटनाओं का ज़िक्र करेंगे जिसे पाठकों को समझने में आसानी होगी।

1- 2019 के लोकसभा चुनाव में देशभर के कॉमरेड, सेक्युलर, लिबरल, एक्टिविस्ट, बुद्धिजीवी, छात्र पत्रकार इत्यादि कन्हैया के चुनाव प्रचार में बेगूसराय पहुंचे थे। शहला रशीद, स्वरा भास्कर, योगेंद्र यादव, प्रकाश राज, जिग्नेश मेवानी, जेएनयू के गुमशुदा छात्र नजीब की अम्मी सहित पूरी जेएनयू और दूसरे यूनिवर्सिटी के लाल सलामी टीम को कन्हैया ने बुलाया था। उस समय बेगूसराय की स्थिति ऐसी थी कि मतदाता से अधिक चुनाव-प्रचारक नज़र आते थे। अगर बेगूसराय में कन्हैया के प्रचार में कोई नज़र नहीं आया तो वह उमर ख़ालिद थे।

2- जब CAA/NRC/NPR का आंदोलन शुरू हुआ तब बिहार का इसमें अहम रोल रहा। इसी मुद्दें पर बिहार में अख्तरूल ईमान, डॉ. शक़ील अहमद खान और कन्हैया कुमार सहित दर्जनों एक्टिविस्टों ने सामूहिक रूप से पूरे बिहार में एक तिरंगा यात्रा निकाला था। हालांकि दो-तीन कार्यक्रमों के बाद अख्तरूल ईमान इस यात्रा से बाहर हो गये थे। इस यात्रा का अंत 27 फ़रवरी, 2020 को पटना के गांधी मैदान में होना था। देश भर से छोटे-बड़े-मंझले सभी तरह के एक्टिविस्टों का बैनर पर नाम पड़ा और पटना बुलाया गया। उस समय पटना में मौजूद होने के बावजूद अंतिम समय में कन्हैया की टीम ने उमर ख़ालिद का नाम हटा दिया। जबकि उमर इस आंदोलन के प्रमुख चेहरों में से एक थे। यही नहीं जामिया के चंदन कुमार और चन्दा यादव तक को बुलाया गया था। जबकि इस आंदोलन की जामिया में प्रमुख चेहरा आयेशा रेना और लदीदा फ़रज़ाना और मीरान हैदर को नहीं बुलाया गया। आपमें से बहुत लोगों को याद होगा कि उस समय उमर खालिद की टीम की तरफ़ से एक जॉइंट स्टेटमेंट भी आया था।

3- कन्हैया की गिरफ्तारी होती है। एक बड़ा पत्रकार उनकी मुंह में ज़बरदस्ती डेढ़ फुट का माइक डालकर उन्हें नेता बनाने की प्रक्रिया की शुरुआत करता है। देश के युवा पागल हो जाते हैं। ऐसा मालूम पड़ता है कि दूसरा बोल्शेविक जेएनयू में होगा और कन्हैया ही अगला लेनिन बनेगा। CAA आंदोलन के दौरान देशभर में सैकड़ों छात्रों की गिरफ्तारी होती है। उसी दिल्ली के जेएनयू और जामिया के दर्जनों छात्रों जिनमें शरजील ईमाम, मीरान हैदर और उमर ख़ालिद को भी गिरफ्तार किया जाता है। बाक़ी लोगों पर चर्चा तो दूर लोग नाम तक नहीं जानते है। उमर ख़ालिद की गिरफ्तारी के समय कन्हैया द्वारा एक बयान तक नहीं आता है बल्कि वह एक सप्ताह तक फेसबुक और ट्विटर से ग़ायब रहते हैं।

कन्हैया ने तो मीरान हैदर के सवाल को यह कहते हुए खारिज़ कर दिया की मीरान उनकी पार्टी यानी कांग्रेस के नहीं है। लेकिन एक सवाल यहां पर खड़ा होता है कि जब कन्हैया की गिरफ्तारी हुई तो क्या उस समय मीरान हैदर या देश के किसी भी गैर-भाजपाई दलों के कार्यकर्ताओं ने यह सोचा था कि कन्हैया उनकी पार्टी के नहीं है? उस समय कन्हैया कम्युनिस्ट पार्टी के कैडर हुआ करते थे इसके बावजूद भी कांग्रेस, राजद, सपा, तृणमूल, बसपा, आप और भी अन्य पार्टियों के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने कन्हैया के लिए दिल्ली की सड़कों पर लड़ाई लड़ी थी।

कन्हैया जब जेल से छूटकर आये थे तब उन्होंने जेएनयू एडमिनिस्ट्रेटिव ब्लॉक में लगभग एक घण्टा का भाषण दिया था और उस भाषण में उन्होंने देशभर के छात्रों की लड़ाई लड़ने की बात करी थी। मीरान हैदर राष्ट्रीय जनता दल के नेता बाद में है पहले वह जामिया मिल्लिया इस्लामिया के रिसर्च स्कॉलर और छात्रनेता हैं। इसलिए नैतिकता के आधार पर ही सही कन्हैया को मीरान हैदर के नाम से नहीं भागना चाहिए था। बल्कि मीरान और कन्हैया दो दर्जन से अधिक मौक़ों पर एकसाथ मंच साझा किए हैं। फिर कन्हैया ने मीरान के सवाल को टाल क्यों दिया? यह बात समझ से परे है।

इस वीडियो के बाहर आने के बाद मुस्लिम युवाओं में कन्हैया कुमार को लेकर बहुत गुस्सा है। सोशल मीडिया पर उनके विरुद्ध ट्रेंड चल रहा है। हालांकि कन्हैया की तरफ़ से अभी तक कुछ सफाई पेश नहीं की गई है। पिछले 6-7 वर्षों में कन्हैया के पीछे सबसे अधिक भीड़ मुस्लिम युवाओं की रही है। मगर उनके इस आभा मंडल को लगभग 50 सेकण्ड्स की एक वीडियो क्लिप ने ध्वस्त कर दिया है। कन्हैया को इस बात का तनिक भी अंदाज़ा नहीं रहा होगा की सिवान जैसे एक छोटे शहर के एक छोटे से यूट्यूब चैनल का एक क्लिप दस दिनों के बाद इस तरह वायरल होगा और मुसलमानों के बीच बनी उनकी छवि मटियामेट हो जायेगी।

कांग्रेस बड़ी उम्मीद के साथ कन्हैया को लेकर आयी थी। कांग्रेस को ऐसा लगा था कि कन्हैया की लोकप्रियता का फ़ायदा उठाकर बिहार में अपने अस्तित्व को बहाल किया जा सकता है। साथ-साथ कांग्रेस की पारंपरिक वोट बैंक मुसलमानों को वापस दिलाने में भी मदद मिलेगी। यही सोचकर कांग्रेस ने इतना बड़ा फैसला लेकर राजद के साथ चला आ रहा गठबंधन तोड़कर बिहार उपचुनाव में अकेले लड़ने का निर्णय लिया। हालांकि उपचुनाव में कांग्रेस उम्मीदवारों को ज़मानत बचाना मुश्किल रहा। अब वीडियो वायरल होने के बाद मुस्लिम युवा ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं और कन्हैया को लेकर युवाओं के विचारों में बदलाव आया है। कुल मिलाकर जिस उम्मीद के साथ कांग्रेस उसे लेकर आयी थी उसमें अभी तक असफ़ल दिख रही है।

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