मध्य प्रदेश: नवजातों की जान ले लेती है ये प्राचीन कुप्रथा,जानिये क्यों हार जाता है स्वास्थ्य विभाग भी

जब नवजात को सांस लेने में तकलीफ होती है या दस्त के कारण उसके पेट की नसें बाहर दिखने लगती हैं, तब उन्ही नसों को गर्म लोहे की कील, काली चूड़ी या नीम या बांस की डंठल से दागा जाता है।
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Representational ImageCourtesy-Pvproductions/Freepik

भोपाल। मध्य प्रदेश के शहडोल संभाग में आदिवासी परिवारों में नवजात शिशुओं को ठंड के मौसम में निमोनिया होने पर दागने (आंकने) की कुप्रथा दशकों से चली आ रही है। इस पर विराम लगाने के लिए जिला प्रशासन व महिला एवं बाल विकास विभाग के साथ स्वास्थ्य विभाग का अमला लगातार जागरुकता अभियान चला रहा है, लेकिन आये दिन सामने आ रहे ऐसे मामलों के बाद जागरूकता अभियान पर सावलिया निशान लग रहा है।

आदिवासी अंचल में दागना के मामले ठंड बढऩे के साथ फिर सामने आने लगे हैं। हाल ही में शहडोल जिले के पटासी गाँव की 3 माह की बच्ची की जिला चिकित्सालय में इलाज के दौरान मौत हो गई। बच्ची की मौत का कारण चिकित्सकों ने निमोनिया बताया है। रागनी के पेट में भी कई निशान थे। यह निशान दागने के थे। बच्ची के पेट में ऐसी कोई जगह नहीं थी जहां दागने के निशान न हो। जानकारी के मुताबिक बालिका को सांस लेने में तकलीफ थी लेकिन गांव में इलाज नहीं मिला। बाद में परिजनों ने दगवा दिया था।

इधर शहडोल में ही डेढ़ माह के शिशु को पेट फूलने पर दाई ने दागा बंधवा निवासी हर्षलाल बैगा का 1 माह 15 दिन के बेटे को पेट में कई जगह दागने के निशान है। बच्चे को जिला चिकित्सालय के पीआईसीयू में भर्ती कराया गया है। हर्षलाल बैगा की पत्नी रामबाई बैगा अपने डेढ़ माह के बच्चे राजन को लेकर अपने मायके बकेली गई हुई थी। वहां बच्चे का स्वास्थ्य खराब हो गया। पसली चलने व पेट में सूजन आने की वजह से बच्चे का इलाज कराने की वजाय रामबाई की मां गांव की ही दाई को बुला लाई। दाई ने गर्म चूडिय़ों से बच्चे के पेट में 12 से अधिक बार दागा है। इसके बाद बच्चे की तबियत में सुधार न होने पर जिला चिकित्सालय शहडोल में भर्ती कराया गया है।

आदिवासी परिवारों में नवजात शिशुओं को ठंड के मौसम में निमोनिया होने पर दागने (आंकने) की कुप्रथा दशकों से चली आ रही है।
आदिवासी परिवारों में नवजात शिशुओं को ठंड के मौसम में निमोनिया होने पर दागने (आंकने) की कुप्रथा दशकों से चली आ रही है।

द मूकनायक से बातचीत करते हुए शहडोल के स्थानीय पत्रकार और दागना प्रथा पर लंबे समय से काम कर रहे शुभम सिंह बघेल ने बताया कि जिला प्रशासन और स्वास्थ्य विभाग ग्रामीणों को जागरूक करने का काम कर रहा है। लेकिन कुछ कमियां है की प्रशासन वहां तक पहुँच नहीं पा रहा है। हम भी लगातार काम कर रहे है। गाँवों में दाई, गुनियों की काउंसलिंग भी कर रहें हैं।

क्या है दागना कुप्रथा?

आदिवासी इलाकों में नवजातों को दागने की कुप्रथा दशकों पुरानी है। ठंड के समय जब नवजातों को निमोनिया या डबल निमोनिया हो जाता है, तब उन्हें सांस लेने में तकलीफ होती है। पेट दर्द, दस्त की शिकायत पर परिवार वाले नवजातों को ठीक करने के लिए इस कुप्रथा का सहारा लेते हैं। लोगों का मानना है दागने से उनके बच्चों की यह बीमारी ठीक हो जाएगी। जब नवजात को सांस लेने में तकलीफ होती है या दस्त के कारण उसके पेट की नसें बाहर दिखने लगती हैं, तब उन्ही नसों को गर्म लोहे की कील, काली चूड़ी या नीम या बांस की डंठल से दागा जाता है। यह काम गांव में रहने वाली विशेष समुदाय की महिलाएं करती हैं। इन महिलाओं को नवजातों की मालिश के अलावा दागने की जिम्मेदारी दी जाती है। काली चूड़ी से टोटका दूर होने की भी कुरीति चलन में है।

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