चिंताग्रस्त लोगों में स्मृतिलोप (डिमेंशिया) विकसित होने का जोखिम, चिंतामुक्त लोगों की तुलना में तीन गुना अधिक हो सकता है। एक अध्ययन में यह बात सामने आई है। 'जर्नल आफ द अमेरिकन जेरिएट्रिक्स सोसायटी' में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, 60-70 वर्ष के आयु समूह के जिन लोगों में 'क्रोनिक' (लगातार) चिंता की समस्या होती है, उनमें मानसिक विकार विकसित होने की आशंका अधिक होती है, जिसमें याददाश्त और निर्णय लेने की क्षमता कमजोर हो जाती है, जिससे दैनिक गतिविधियां प्रभावित होती है।
ब्रिटेन के न्यूकैसल विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं समेत अन्य शोधकर्ताओं ने कहा कि जिन लोगों की चिंता दूर हो गई, उनमें स्मृतिलोप का जोखिम उन लोगों की तुलना में अधिक नहीं था, जिनमें यह समस्या कभी नहीं आई। इसलिए, शोधकर्ताओं ने सुझाव दिया कि चिंताओं का सफलतापूर्वक निराकरण करने से स्मृतिलोप विकसित होने के जोखिम को कम करने में मदद मिल सकती है।
न्यूकैसल विश्वविद्यालय से जुड़े और अध्ययन के सह-लेखक के खांग ने कहा कि निष्कर्ष बताते हैं कि स्मृतिलोप की रोकथाम में लक्षित करने में चिंता एक नया जोखिम कारक हो सकती है और यह भी संकेत देता है कि चिंता के उपचार से यह जोखिम कम हो सकता है।
शोधकर्ताओं के अनुसार, चिंता और स्मृतिलोप के बीच संबंधों की जांच करने वाले पिछले अध्ययनों ने बड़े पैमाने पर शुरुआत में चिंता को मापा है। हालांकि उन्होंने कहा कि कुछ अध्ययनों ने इस बात पर ध्यान दिया है कि लगातार चिंता, तथा चिंता विकसित होने की उम्र, किस प्रकार स्मृतिलोप के जोखिम को प्रभावित करती है।
अध्ययन के लिए, शोधकर्ताओं ने 76 वर्ष की औसत आयु वाले 2,000 से अधिक व्यक्तियों को शामिल किया, जिनमें से लगभग 450 (21 फीसद) की शुरू से ही चिंता थी। इस समूह पर 10 वर्षों से अधिक समय तक नजर रखी गई।
पांच वर्षों के बाद अध्ययन के दौरान, यदि चिंता के लक्षण बरकरार रहे तो प्रतिभागियों को 'दीर्घकालिक चिंता' से ग्रस्त माना गया, तथा यदि उनमें चिंता के लक्षण विकसित हुए तो इसे 'नई शुरुआत वाली चिंता' माना गया।
शोधकर्ताओं ने पाया कि जो लोग दीर्घकालिक चिंता से ग्रस्त थे या जिन लोगों में अध्ययन के दौरान चिंता विकसित हुई, उनमें स्मृतिलोप होने का जोखिम क्रमशः 2.8 और 3.2 गुना अधिक था। उन्होंने बताया कि अध्ययन के प्रारंभ से लेकर अब तक स्मृतिलीप के निदान में लगने वाला औसत समय 10 वर्ष था।
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