ग्राउंड रिपोर्टः एक गांव जिसमें चारे ने बदल दी किसानों की किस्मत, आज लगभग हर घर में ट्रक, कभी खाने की थी तंगी

ग्राउंड रिपोर्टः एक गांव जिसमें चारे ने बदल दी किसानों की किस्मत, आज लगभग हर घर में ट्रक, कभी खाने की थी तंगी
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भोपाल। कुछ व्यापार ऐसे हैं, जिनका जिक्र तो नहीं होता, लेकिन धीरे-धीरे वह इतना तरक्की कर जाते हैं कि उनसे होने वाला लाभ अन्य काम-धंधों से अधिक होता है। ऐसा ही एक व्यापार आज से 52 साल पहले भोपाल के ललरिया गांव के किसानों ने शुरू किया था। यह व्यापार है भूसे (चारे) का, जहां एक तरफ देश के अलग-अलग हिस्सों में किसानों को जानवरों को खिलाने के लिए चारा नहीं मिल पा रहा है। वहीं दूसरी ओर गांव के किसान चारे को दान में दे रहे हैं।

70 के दशक में शुरू किया व्यापार

भोपाल के बैरसिया विधानसभा के ललरिया गांव के किसानों को 70 के दशक में ही एक ही बात समझ में आ गई थी कि सिर्फ किसानी से वह अपना पेट नहीं पाल पाएंगे। क्योंकि गांव वालों के पास जमीन तो बहुत थी। लेकिन उसकी सिंचाई के लिए कोई साधन नहीं था। गांव से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर नहर थी। साथ ही उस वक्त लोगों के पास बिजली भी नहीं थी न मोटर। गांव के किसान बारिश पर ही निर्भर रहते थे, जिसके कारण रबी की फसलें नहीं हो पाती थीं। इस परेशानी से निजात पाने के लिए गांव के किसानों ने भूसे का व्यापार करने का निर्णय लिया।

गांव के वर्तमान सरपंच शाहिद खान के पिता और गांव के अन्य लोगों ने मिलकर खेती की समस्या से निवारण पाने के लिए भूसे का कारोबार शुरू किया। खान बताते है कि आवश्कता अविष्कार की जननी है। गांव के लोगों ने अपनी जीविका को चलाने के लिए एक और विकल्प खोज लिया, जिसका नतीजा यह है कि आज इस गांव के लगभग सभी लोग प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से इस काम से जुड़े हैं।

शाहिद खान और अन्य व्यापारी
शाहिद खान और अन्य व्यापारी

गांव में 1974 में आई बिजली

शाहिद के ही बगल में बैठे एक बुजुर्ग बताते हैं कि जिस वक्त यह काम शुरू हुआ। गांव में बिजली नहीं होती थी। आज तो मशीनों के जरिए यह काम होता है, जिसके कारण काम जल्दी भी होता है और सप्लाई भी राज्य से बाहर की जाती। वह बताते हैं कि गांव में बिजली 1974 में आई। लेकिन यहां भूसे का काम 1970 में ही शुरू हो गया था। उस दौरान बुजुर्ग लोग गांव में खेतों से फसल की कटाई के बाद चारा लाते थे और दो बैलों की मदद से उसका भूसा बनाते थे। लेकिन आज के दौर में जैसे व्यापार बढ़ा इस गांव के आस-पास के गांव के खेतों से फसलों के सूखे पौधे(मुठे) को इकट्ठा करके मंगाया जाता है। उसे फैक्ट्री में भेजा जाता है। वह बताते हैं इस काम से छोटे किसानों ने भी इतनी तरक्की की है कि जो लोग पहले ट्रकों के खलासी बनकर इसकी डिलवरी करवाते थे। आज वह 10 चक्का ट्रक के मालिक हैं।

बुर्जुग की बात को आगे बढ़ाते हुए शाहिद कहते हैं कि इस गांव की स्थिति आज ऐसी है कि 10 हजार की आबादी वाले इस गांव में लगभग 200 घरों में ट्रक हैं। जिसका नतीजा यह है कि अब किसानों को माल(चारा, भूसा) की डिलवरी करवाने के लिए किसी दूसरे पर आश्रित नहीं रहना पड़ता है। वह अपने पिता के दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि एक समय ऐसा था यहां के छोटे किसानों के पास न तो सही से खाना होता था न ही कपड़े। ईद में अगर कोई ले लेता था तो धनी समझ जाता था। लेकिन हमारे बुर्जुगों ने अपनी सूझबूझ से ऐसा काम कर दिया है। जिससे आज हमारी पीढ़ी अच्छी जिंदगी जी रही हैं।

चौम्पियन्स की होती है डबल इनकम

इसी गांव के पूर्व जिला पंचायत सदस्य खालिद नेता से द मूकनायक की टीम ने इस पूरे व्यापार के बारे में जानने की कोशिश की। खालिद बताते हैं कि इस व्यापार की शुरुआत के बारे में तो आपको पता चल गया है।

चार पैक करते चैंपियन
चार पैक करते चैंपियन

आज की बात करें तो स्थिति यह है कि इस गांव को छोटा हो या बड़ा हर किसान इस धंधे से जुड़ा हुआ है, जिनके पास खेती की जमीन नहीं है। वह यहां मजदूरी करते हैं। स्थिति यह है अब इस गांव के आस-पास के जिलों से लोग काम करने आते हैं। जिनकी मजदूरी 500 रुपए होती है। वहीं दूसरी लोग जो लोग भूसे(चारा) को ट्रकों और लोरी में भरते हैं। वह अलग मजदूर होते हैं। उनकी दिहाड़ी नहीं होती है। उन्हें प्रति गाड़ी की भराई के हिसाब से मजदूरी मिलती है। इन्हें "चौम्पियन" कहा जाता है। जिन्हें एक ट्रक की भरपाई में 1200 मिलता है। ऐसे कई चौम्पियन्स हैं। जो दिनभर में दो से तीन ट्रक भर लेते हैं। वह बताते हैं कि चौम्पियन को मजदूरी नहीं मिलती यह उनके टैलेंट की कमाई है क्योंकि हर कोई ट्रक को भर नहीं सकता है।

भूसे की कमी

आधुनिकता ने हमें बहुत कुछ दिया तो प्रकृति हमसे बहुत कुछ छीन रही है। यह कहना है खालिद नेताजी का। वह बताते हैं कि शुरुआती दिनों में लोग मजदूरी करते थे। आज मशीनीकरण के दौर में यह काम मशीनें कर रही हैं, जिससे काम तो जल्दी हो जाता है। हालांकि एक समय बाद उसका परिणाम भी भुगतना पड़ता है।

वह बताते हैं कि पहले के दौर में लोग दाती(फसल काटने वाले औजार) फसले के मुठे को काटते थे। जिसके कारण पौधा पूरी तरह से कट जाता था और उससे पौधे की लंबाई भी ज्यादा होती है। पौधे की लंबाई ज्यादा होती थी। इसलिए भूसा भी ज्यादा होता था। आज के दौर में हमलोग कंबाइन हॉरवेस्टिंग मशीन से फसलों की कटाई कराते हैं। मशीनों से कटाई होने के कारण मुठा पूरी तरह से जमीन से कट नहीं पाता है। मशीन एक दो सेंटीमीटर ऊपर से काटती है। जिसके कारण भूसे में कमी आ रही है। जिसका परिणाम हमें इस साल देखने को भी मिला है। देश के अलग-अलग हिस्सों में चारे की कमी आ गई है। आज हालात ऐसे हैं कि चारे की कमी के कारण लोग पशुओं को पाल नहीं पा रहे हैं। वह कहते हैं कि जिस तरह से इस साल चारे की कमी के खबरें आ रही थीं। वह भविष्य के संकट के संकेत हैं।

सिर्फ एक सीजन का ही काम है

जिस वक्त भूसे का यह काम शुरू किया गया था किसी ने नहीं सोचा था कि यह इतना बड़ा व्यापार बना जाएगा। खालिद बताते हैं कि यह एक तरह का सीजनल काम है। जिसकी अवधि मार्च से जून तक की होती है। रबी की फसल (गेंहू, चना, मक्का) की कटाई के दौरान यह काम होता है। इन तीन महीनों में ही किसान अपना व्यापार करते हैं। जबकि बड़े किसान पूरा साल भर का माल भरकर रख लेते हैं और साल भर बेचते है। इसी दौरान गांव के आस-पास के 10 से 15 जिलों से फसलों के मुठों को इकट्ठा किया जाता है। इसके लिए भी ंएक आदमी होता है। वह गांव-गांव जाकर लोगों से पूछता है किसे बेचना है। जैसे ही लोग राजी हो जाते हैं और पैसों को बात फाइनल हो जाती है। एक ट्रक में उसे लाया जाता है और फैक्ट्री में रखा जाता है। खालिद बताते है कि जिस वक्त यह काम शुरू हुआ था। उस वक्त भूसे की कीमत 12 रुपए क्विंटल थी। आज इसकी कीमत 1200 रुपए क्विंटल हो गई है। इसके साथ ही महंगाई भी बढ़ी है। लेकिन इतना है कि लोग खुशहाली की जिंदगी जी रहे हैं।

कैसे होता है व्यापार

शाहिद के परिवार की यह दूसरी पीढ़ी है। जो इस व्यापार को कर रही है। वह बताते हैं कि इतना आसान नहीं है काम करना। एक भूसे के ट्रक में माल लादने से लेकर गंतव्य स्थान तक पहुंचाने में कई तरह की दिक्कत आती है। शाहिद कहते हैं कि आज देश के अलग-अलग हिस्सों में भूसा हमारे यहां से ही जाता है। गोवा, मध्यप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र। वह बताते हैं कि एक ट्रक में 1500 क्विंटल चारा भेजा जाता है। जिसे भेजने की एक लंबी प्रक्रिया है। इन्हें दो तरीकों से भेजा जाता है। पहला आप डायरेक्ट अपने क्लाइट को संपर्क करें। जहां आपका माल हमेशा जाता है। यहां भेजने में दिक्कत नहीं होती है। दूसरा आढ़तियों के माध्यम से। वह बताते हैं कि आढ़ती हमें क्लाइट देता है और हम उसे इसके बदले पैसे देते हैं। इनसे जबतक पूरी बात फाइनल नहीं हो जाती है तब तक ट्रक भेजा नहीं जाता है। वह बताते इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि चारे की कोई मंडी नहीं है। जिसे चाहिए वह आपसे सीधा संपर्क करेगा।

इंदौर और पूने सबसे ज्यादा चारा भेजा जाता है

वैसे तो भूसे का व्यापार पूरे देश में ललरिया गांव से होता है। लेकिन सबसे ज्यादा डिलवरी इंदौर और पूने में होती है। पूने में मशरूम की खेती के लिए इसका प्रयोग किया जाता है और इंदौर में डेयरी का काम किया जाता है। खालिद बताते हैं कि एक ट्रक के पीछे लगभग 20 से 25 हजार का मुनाफा हो जाता है। ट्रक को भरने से लेकर वहां पहुंचाकर वापस आने में एक सप्ताह का समय लग जाता है। मुनाफे की बात करते हुए वह कहते हैं कि यह मुनाफा इसलिए भी होता है क्योंकि सभी व्यापारियों के पास लगभग अपने ट्रक हैं। जिसके कारण वह वापसी के समय वह से कुछ और लोड करके ले आते हैं। वह कहते है कि इस व्यापार की एक और खासियत है। ट्रक में भूसा जो चौम्पिंयन भरते हैं। खाली करने भी वही लोग जाते हैं। क्योंकि उसे भरने और खाली करना भी एक तकनीक है। जिसे हर कोई नही कर सकता है।

व्यापार में आती चुनौतियां

शाहिद कहते हैं कि बाकी व्यापारों की तरह इसमें भी तरह-तरह की चुनौतियां हैं। हमारी लिए सबसे बड़ी चुनौती आग है। कई बार ऐसा होता है कि ट्रक में आग लग गई। सूखा चारा होने के कारण इसमें आग बहुत जल्दी पकड़ लेती है। कई बार उसमें लोग भी जल जाते हैं। कई लोगों को एक झटके में ही पूरा धंधा ही खत्म हो जाता है। दूसरा कई बार ऐसा होता है बड़े व्यापारी भूसे को स्टॉक करके रख लेते हैं। लेकिन मांग नहीं आने के कारण वह पूरी से सड़ जाता है। जिसका भारी नुकसान झेलना पड़ता है।

सफल किया अपना बिजनेस

मकसूद मौलान ललरिया गांव के ही रहने वाले एक मध्यम वर्गीय किसान है। जिनके पास 21 एकड़ जमीन है। सात साल पहले मकसूद से चारे का कारोबार शुरू किया था। आज उनका कारोबार दिन दोगुनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा है। वह बताते हैं कि 1500 क्विंटल में लगभग 15 से 20 हजार का मुनाफा कमा लेते हैं। 850 से लेकर 1200 रुपए तक प्रति क्विंटल बेचते हैं। उनका काम पूरे 12 महीने चलता है।

गांव की संरचना

ललरिया गांव एक मुस्लिम बहुत गांव हैं। जहां 80 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है। जिसमें 1500 परिवार है। लगभग 50 बड़े किसान है। जिनके पास 50 से 100 एकड़ तक की जमीन है। मध्यम वर्ग के 100 किसान है। जिनके पास 20 से 50 एकड़ तक की जमीन है। बाकी बचे 40 प्रतिशत छोटे किसान हैं। पूरे गांव में लोगों के पास खेती बाड़ी के साथ-साथ मवेशी भी है। गांव के लोग अपनी जरूरत का चारा रखकर बाकी बेच देते हैं।

नोट : सेंटर फॉर साइंस एण्ड इनवायरमेंट द्वारा देशभर में कई पत्रकारों को भोपाल के आस-पास के गांवों का दौरा करवाया गया ताकि जमीनी सच्चाई को जान सकें।

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